Saturday, April 29, 2017

सूत्र

 सूत्र

 एक साथ नहीं खानी चाहिए

चाय के साथ कोई भी नमकीन चीज नहीं खानी चाहिए।दूध और नमक का संयोग सफ़ेद दाग या किसी भी स्किन डीजीज को जन्म दे सकता है, बाल असमय सफ़ेद होना या बाल झड़ना भी स्किन डीजीज ही है।
सर्व प्रथम यह जान लीजिये कि कोई भी आयुर्वेदिक दवा खाली पेट खाई जाती है और दवा खाने से आधे घंटे के अंदर कुछ खाना अति आवश्यक होता है, नहीं तो दवा की गरमी आपको बेचैन कर देगी।
दूध या दूध की बनी किसी भी चीज के साथ दही ,नमक, इमली, खरबूजा,बेल, नारियल, मूली, तोरई,तिल ,तेल, कुल्थी, सत्तू, खटाई, नहीं खानी चाहिए।
दही के साथ खरबूजा, पनीर, दूध और खीर नहीं खानी चाहिए।
गर्म जल के साथ शहद कभी नही लेना चाहिए।
ठंडे जल के साथ घी, तेल, खरबूज, अमरूद, ककड़ी, खीरा, जामुन ,मूंगफली कभी नहीं।
शहद के साथ मूली , अंगूर, गरम खाद्य या गर्म जल कभी नहीं।
खीर के साथ सत्तू, शराब, खटाई, खिचड़ी ,कटहल कभी नहीं।
घी के साथ बराबर मात्र1 में शहद भूल कर भी नहीं खाना चाहिए ये तुरंत जहर का काम करेगा।
तरबूज के साथ पुदीना या ठंडा पानी कभी नहीं।
चावल के साथ सिरका कभी नहीं।
चाय के साथ ककड़ी खीरा भी कभी मत खाएं।
खरबूज के साथ दूध, दही, लहसून और मूली कभी नहीं।

कुछ चीजों को एक साथ खाना अमृत का काम करता है जैसे-

खरबूजे के साथ चीनी
इमली के साथ गुड
गाजर और मेथी का साग
बथुआ और दही का रायता
मकई के साथ मट्ठा
अमरुद के साथ सौंफ
तरबूज के साथ गुड
मूली और मूली के पत्ते
अनाज या दाल के साथ दूध या दही
आम के साथ गाय का दूध
चावल के साथ दही
खजूर के साथ दूध
चावल के साथ नारियल की गिरी
केले के साथ इलायची

अगर आपने ज्यादा खा ली हैं तो कैसे पचाई जाएँ

केले की अधिकता में दो छोटी इलायची
आम पचाने के लिए आधा चम्म्च सोंठ का चूर्ण और गुड
जामुन ज्यादा खा लिया तो ३-४ चुटकी नमक
सेब ज्यादा हो जाए तो दालचीनी का चूर्ण एक ग्राम
खरबूज के लिए आधा कप चीनी का शरबत
तरबूज के लिए सिर्फ एक लौंग
अमरूद के लिए सौंफ
नींबू के लिए नमक
बेर के लिए सिरका
गन्ना ज्यादा चूस लिया हो तो ३-४ बेर खा लीजिये
चावल ज्यादा खा लिया है तो आधा चम्म्च अजवाइन पानी से निगल लीजिये
बैगन के लिए सरसो का तेल एक चम्म्च
मूली ज्यादा खा ली हो तो एक चम्म्च काला तिल चबा लीजिये
बेसन ज्यादा खाया हो तो मूली के पत्ते चबाएं
खाना ज्यादा खा लिया है तो थोड़ी दही खाइये
मटर ज्यादा खाई हो तो अदरक चबाएं
इमली या उड़द की दाल या मूंगफली या शकरकंद या जिमीकंद ज्यादा खा लीजिये तो फिर गुड खाइये
मुंग या चने की दाल ज्यादा खाये हों तो एक चम्म्च सिरका पी लीजिये
मकई ज्यादा खा गये हो तो मट्ठा पीजिये
घी या खीर ज्यादा खा गये हों तो काली मिर्च चबाएं
खुरमानी ज्यादा हो जाए तोठंडा पानी पीयें
पूरी कचौड़ी ज्यादा हो जाए तो गर्म पानी पीजिये
अगर सम्भव हो तो भोजन के साथ दो नींबू का रस आपको जरूर ले लेना चाहिए या पानी में मिला कर पीजिये या भोजन में निचोड़ लीजिये ,८०% बीमारियों से बचे रहेंगे।

मधुमेह(डायबिटिज) का ईलाज

मधुमेह(डायबिटिज) का ईलाज


आजकल मधुमेह की बीमारी आम बीमारी है। डाईबेटिस भारत मे 5 करोड़ 70 लाख लोगोंकों है और 3 करोड़ लोगों को हो जाएगी अगले कुछ सालों मे सरकार ये कह रही है । हर दो मिनट मे एक मौत हो रही है डाईबेटिस से और complication Complications तो बहुत हो रहे है... किसी की किडनी ख़राब हो रही है, किसीका लीवर ख़राब हो रहा है किसीको ब्रेन हेमारेज हो रहा है, किसीको पैरालाईसीस हो रहा है, किसीको ब्रेन स्ट्रोक आ रहा है, किसीको कार्डियक अरेस्ट हो रहा है, किसी को हार्ट अटैक आ रहा है Complications बहुत है खतरनाक है ।

जब किसी व्यक्ति को मधुमेह की बीमारी होती है। इसका मतलब है वह व्यक्ति दिन भर में जितनी भी मीठी चीजें खाता है (चीनी, मिठाई, शक्कर, गुड़ आदि) वह ठीक प्रकार से नहीं पचती अर्थात उस व्यक्ति का अग्नाशय उचित मात्रा में उन चीजों से इन्सुलिन नहीं बना पाता इसलिये वह चीनी तत्व मूत्र के साथ सीधा निकलता है। इसे पेशाब में शुगर आना भी कहते हैं। जिन लोगों को अधिक चिंता, मोह, लालच, तनाव रहते हैं, उन लोगों को मधुमेह की बीमारी अधिक होती है। मधुमेह रोग में शुरू में तो भूख बहुत लगती है। लेकिन धीरे-धीरे भूख कम हो जाती है। शरीर सुखने लगता है, कब्ज की शिकायत रहने लगती है। अधिक पेशाब आना और पेशाब में चीनी आना शुरू हो जाती है और रेागी का वजन कम होता जाता है। शरीर में कहीं भी जख्म/घाव होने पर वह जल्दी नहीं भरता।
तो ऐसी स्थिति मे हम क्या करें ? राजीव भाई की एक छोटी सी सलाह है के आप इन्सुलिन पर जादा निर्भर न करे क्योंकि यह इन्सुलिन डाईबेटिस से भी जादा खतरनाक है, साइड इफेक्ट्स बहुत है ।

सामग्री:: 100 ग्राम मेथी दाना, 100 ग्राम तेज पत्र, 150 ग्राम जामुन की गुठली और 250 ग्राम बेल पत्र
बनाने की विधि:: इन सब को अलग अलग धूप में सुखाकर इन्हे पत्थर पर पीस ले और बाद में सबको मिलाले
इसका एक चम्म्च सुबह नाश्ता करने से पहले 1 गिलास गर्म पानी से ले ले और एक चम्म्च रात को खाना खाने से एक घण्टे पहले, इस दवा को ३ महिने लगातार लेने से मधुमेह(डायबिटिज) खत्म हो जाती है, इसके साथ रोजाना योग-प्राणायाम जरूर करे

प्रहेज और सावधानिया::
ज्यादा फ़ाईबर और कम फ़ैट वाली चीजे खाए जैसे सब्जीया खाए, दाल छिलके वाली ही खाए
चीनी न खाए, देसी गुड खा सकते है (बिना कैमीकल वाला)
फ़ल आदि जिसमें प्राक्रतिक शक्कर होती है वो सभी खा सकते है

नाभि खिसकना

नाभि  खिसकना

- योग में नाड़ियों की संख्या बहत्तर हजार से ज्यादा बताई गई है और इसका मूल उदगम स्त्रोत नाभिस्थान है।

- आधुनिक जीवन-शैली इस प्रकार की है कि भाग-दौड़ के साथ तनाव-दबाव भरे प्रतिस्पर्धापूर्ण वातावरण में काम करते रहने से व्यक्ति का नाभि चक्र निरंतर क्षुब्ध बना रहता है। इससे नाभि अव्यवस्थित हो जाती है। इसके अलावा खेलने के दौरान उछलने-कूदने, असावधानी से दाएँ-बाएँ झुकने, दोनों हाथों से या एक हाथ से अचानक भारी बोझ उठाने, तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने, सड़क पर चलते हुए गड्ढे, में अचानक पैर चले जाने या अन्य कारणों से किसी एक पैर पर भार पड़ने या झटका लगने से नाभि इधर-उधर हो जाती है। कुछ लोगों की नाभि अनेक कारणों से बचपन में ही विकारग्रस्त हो जाती है।

- प्रातः खाली पेट ज़मीन पर शवासन में लेतें . फिर अंगूठे के पोर से नाभि में स्पंदन को महसूस करे . अगर यह नाभि में ही है तो सही है . कई बार यह स्पंदन नाभि से थोड़ा हट कर महसूस होता है ; जिसे नाभि टलना या खिसकना कहते है .यह अनुभव है कि आमतौर पर पुरुषों की नाभि बाईं ओर तथा स्त्रियों की नाभि दाईं ओर टला करती है।

- नाभि में लंबे समय तक अव्यवस्था चलती रहती है तो उदर विकार के अलावा व्यक्ति के दाँतों, नेत्रों व बालों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। दाँतों की स्वाभाविक चमक कम होने लगती है। यदाकदा दाँतों में पीड़ा होने लगती है। नेत्रों की सुंदरता व ज्योति क्षीण होने लगती है। बाल असमय सफेद होने लगते हैं।आलस्य, थकान, चिड़चिड़ाहट, काम में मन न लगना, दुश्चिंता, निराशा, अकारण भय जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों की उपस्थिति नाभि चक्र की अव्यवस्था की उपज होती है।

- नाभि स्पंदन से रोग की पहचान का उल्लेख हमें हमारे आयुर्वेद व प्राकृतिक उपचार चिकित्सा पद्धतियों में मिल जाता है। परंतु इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हम हमारी अमूल्य धरोहर को न संभाल सके। यदि नाभि का स्पंदन ऊपर की तरफ चल रहा है याने छाती की तरफ तो अग्न्याष्य खराब होने लगता है। इससे फेफड़ों पर गलत प्रभाव होता है। मधुमेह, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं।

- यदि यह स्पंदन नीचे की तरफ चली जाए तो पतले दस्त होने लगते हैं।

- बाईं ओर खिसकने से शीतलता की कमी होने लगती है, सर्दी-जुकाम, खाँसी, कफजनित रोग जल्दी-जल्दी होते हैं।

- दाहिनी तरफ हटने पर लीवर खराब होकर मंदाग्नि हो सकती है। पित्ताधिक्य, एसिड, जलन आदि की शिकायतें होने लगती हैं। इससे सूर्य चक्र निष्प्रभावी हो जाता है। गर्मी-सर्दी का संतुलन शरीर में बिगड़ जाता है। मंदाग्नि, अपच, अफरा जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं।

- यदि नाभि पेट के ऊपर की तरफ आ जाए यानी रीढ़ के विपरीत, तो मोटापा हो जाता है। वायु विकार हो जाता है। यदि नाभि नीचे की ओर (रीढ़ की हड्डी की तरफ) चली जाए तो व्यक्ति कुछ भी खाए, वह दुबला होता चला जाएगा। नाभि के खिसकने से मानसिक एवंआध्यात्मिक क्षमताएँ कम हो जाती हैं।

- नाभि को पाताल लोक भी कहा गया है। कहते हैं मृत्यु के बाद भी प्राण नाभि में छः मिनट तक रहते है।

- यदि नाभि ठीक मध्यमा स्तर के बीच में चलती है तब स्त्रियाँ गर्भधारण योग्य होती हैं। यदि यही मध्यमा स्तर से खिसककर नीचे रीढ़ की तरफ चली जाए तो ऐसी स्त्रियाँ गर्भ धारण नहीं कर सकतीं।

- अकसर यदि नाभि बिलकुल नीचे रीढ़ की तरफ चली जाती है तो फैलोपियन ट्यूब नहीं खुलती और इस कारण स्त्रियाँ गर्भधारण नहीं कर सकतीं। कई वंध्या स्त्रियों पर प्रयोग कर नाभि को मध्यमा स्तर पर लाया गया। इससे वंध्या स्त्रियाँ भी गर्भधारण योग्य हो गईं। कुछ मामलों में उपचार वर्षों से चल रहा था एवं चिकित्सकों ने यह कह दिया था कि यह गर्भधारण नहीं कर सकती किन्तु नाभि-चिकित्सा के जानकारों ने इलाज किया।

- दोनों हथेलियों को आपस में मिलाएं। हथेली के बीच की रेखा मिलने के बाद जो उंगली छोटी हो यानी कि बाएं हाथ की उंगली छोटी है तो बायीं हाथ को कोहनी से ऊपर दाएं हाथ से पकड़ लें। इसके बाद बाएं हाथ की मुट्ठि को कसकर बंद कर हाथ को झटके से कंधे की ओर लाएं। ऐसा ८-१० बार करें। इससे नाभि सेट हो जाएगी।

- पादांगुष्ठनासास्पर्शासन उत्तानपादासन , नौकासन , कन्धरासन , चक्रासन , धनुरासन आदि योगासनों से नाभि सही जगह आ सकती है .

- 15 से 25 मि .वायु मुद्रा करने से भी लाभ होता है .

- दो चम्मच पिसी सौंफ, ग़ुड में मिलाकर एक सप्ताह तक रोज खाने से नाभि का अपनी जगह से खिसकना रुक जाता है।

मुंह में अगर छाले हो जाएं

मुंह में अगर छाले हो जाएं

मुंह में अगर छाले हो जाएं तो जीना मुहाल हो जाता है। खाना तो दूर पानी पीना भी मुश्किल हो जाता है। लेकिन, इसका इलाज आपके आसपास ही मौजूद है। मुंह के छाले गालों के अंदर और जीभ पर होते हैं। संतुलित आहार, पेट में दिक्कत, पान-मसालों का सेवन छाले का प्रमुख कारण है। छाले होने पर बहुत तेज दर्द होता है। आइए हम आपको मुंह के छालों से बचने के लिए घरेलू उपचार बताते हैं।

मुंह के छालों से बचने के घरेलू उपचार–

शहद में मुलहठी का चूर्ण मिलाकर इसका लेप मुंह के छालों पर करें और लार को मुंह से बाहर टपकने दें।

मुंह में छाले होने पर अडूसा के 2-3 पत्तों को चबाकर उनका रस चूसना चाहिए।
छाले होने पर कत्था और मुलहठी का चूर्ण और शहद मिलाकर मुंह के छालों परलगाने चाहिए।

अमलतास की फली मज्जा को धनिये के साथ पीसकर थोड़ा कत्था मिलाकर मुंह में रखिए। या केवल अमलतास के गूदे को मुंहमें रखने से मुंह के छाले दूर हो जाते हैं।

अमरूद के मुलायम पत्तों में कत्था मिलाकर पान की तरह चबाने से मुंह के छाले से राहत मिलती है और छाले ठीक हो जाते हैं

बथुआ

बथुआ

- बथुआ संस्कृत भाषा में वास्तुक और क्षारपत्र के नाम से जाना जाता है बथुआ एक ऐसी सब्जी या साग है, जो गुणों की खान होने पर भी बिना किसी विशेष परिश्रम और देखभाल के खेतों में स्वत: ही उग जाता है। एक डेढ़ फुट का यह हराभरा पौधा कितने ही गुणों से भरपूर है। बथुआ के परांठे और रायता तो लोग चटकारे लगाकर खाते हैं बथुआ का शाक पचने में हल्का ,रूचि उत्पन्न करने वाला, शुक्र तथा पुरुषत्व को बढ़ने वाला है | यह तीनों दोषों को शांत करके उनसे उत्पन्न विकारों का शमन करता है | विशेषकर प्लीहा का विकार, रक्तपित, बवासीर तथा कृमियों पर अधिक प्रभावकारी है |

- इसमें क्षार होता है , इसलिए यह पथरी के रोग के लिए बहुत अच्छी औषधि है . इसके लिए इसका 10-15 ग्राम रस सवेरे शाम लिया जा सकता है .

- यह कृमिनाशक मूत्रशोधक और बुद्धिवर्धक है .

-किडनी की समस्या हो जोड़ों में दर्द या सूजन हो ; तो इसके बीजों का काढ़ा लिया जा सकता है . इसका साग भी लिया जा सकता है .

- सूजन है, तो इसके पत्तों का पुल्टिस गर्म करके बाँधा जा सकता है . यह वायुशामक होता है .

- गर्भवती महिलाओं को बथुआ नहीं खाना चाहिए .


- एनीमिया होने पर इसके पत्तों के 25 ग्राम रस में पानी मिलाकर पिलायें .

- अगर लीवर की समस्या है , या शरीर में गांठें हो गई हैं तो , पूरे पौधे को सुखाकर 10 ग्राम पंचांग का काढ़ा पिलायें .

- पेट के कीड़े नष्ट करने हों या रक्त शुद्ध करना हो तो इसके पत्तों के रस के साथ नीम के पत्तों का रस मिलाकर लें . शीतपित्त की परेशानी हो , तब भी इसका रस पीना लाभदायक रहता है .
- सामान्य दुर्बलता बुखार के बाद की अरुचि और कमजोरी में इसका साग खाना हितकारी है।

- धातु दुर्बलता में भी बथुए का साग खाना लाभकारी है।

- बथुआ को साग के तौर पर खाना पसंद न हो तो इसका रायता बनाकर खाएं।

- बथुआ लीवर के विकारों को मिटा कर पाचन शक्ति बढ़ाकर रक्त बढ़ाता है। शरीर की शिथिलता मिटाता है। लिवर के आसपास की जगह सख्त हो, उसके कारण पीलिया हो गया हो तो छह ग्राम बथुआ के बीज सवेरे शाम पानी से देने से लाभ होता है।

- सिर में अगर जुएं हों तो बथुआ को उबालकर इसके पानी से सिर धोएं। जुएं मर जाएंगे और सिर भी साफ हो जाएगा।

- बथुआ को उबाल कर इसके रस में नींबू, नमक और जीरा मिलाकर पीने से पेशाब में जलन और दर्द नहीं होता।

- यह पाचनशक्ति बढ़ाने वाला, भोजन में रुचि बढ़ाने वाला पेट की कब्ज मिटाने वाला और स्वर (गले) को मधुर बनाने वाला है।

- पत्तों के रस में मिश्री मिला कर पिलाने से पेशाब खुल कर आता है।

- इसका साग खाने से बवासीर में लाभ होता है।

- कच्चे बथुआ के एक कप रस में थोड़ा सा नमक मिलाकर प्रतिदिन लेने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

उतारें आँखों का चश्मा, नेत्र से जुड़े सभी रोगों में रामबाण है ये सरल अचूक नुस्खा

उतारें आँखों का चश्मा, नेत्र से जुड़े सभी रोगों में रामबाण है ये सरल अचूक नुस्खा

आंख हमारे शरीर का सबसे अधिक आकर्षण वाला हिस्सा ही नहीं, बल्कि सबसे उपयोगी अंग भी है। इसका सिर्फ खूबसूरत होना तबतक मायने नहीं रखता जबतक कि आपके आंखों की रोशनी भी सलामत न हो, क्योंकि ऐसा नहीं हुआ तो या तो आपकी खूबसूरत आंखों को चश्मे के मोटे-मोटे फ्रेम की नज़र लग जाएगी या फिर लेंस लगाने के झंझटों में फंसे ही रहेंगे।
आँखों के रोग के कारण
आंखों की रोशनी कम होने की वजह है भोजन में विटामिन एकी कमी, जिस वजह से छोटी उम्र से ही आंखें कमजोर होने लगती है।
दूसरी वजह घंटों कंप्यूटर पर बैठकर काम करना या टेलीविजन देखना।
तीसरी वजह आंखों की सफाई पर ध्यान न देना।
ये कुछ वजह हैं जो आंखों की रोशनी को कम करती हैं और आपको चश्मा लगाने के लिए विवश करती है कुछ और वजह भी है जैसे की आधुनिक दौर में आनुवंशिकता, काम का दबाव, तनाव, पोषण की कमी, अधिक पढाई जैसे कारकों के कारण लोगों के चश्मे के नंबर बढ़ते जा रहे हैं। आँखों को धूल और इन्फेक्शन से बचाने के अलावा यहाँ कुछ ऐसे तरीके बताये जा रहे हैं जो आपकी आँखों की दृष्टि बढ़ा सकते हैं। घरेलू उपचार द्वारा आँखों की रोशनी किस तरह बढ़ाई जा सकती है आइये जानते हैं।

आँखों के रोगों का आयुर्वेदिक इलाज

यदि आपकी आँखों में जलन होती है, धुंधलापन है तो इसके लिए आंवला व धनिये का पाउडर बहुत ही लाभकारी है ! इसके लिए आंवले के 2 – 3 टुकड़े व धनिये के रस में भिगोकर सुबह – सुबह उसके पानी से आँखों को धोएं ! इससे आँखों का धुंधलापन दूर होगा और जलन में भी लाभ होगा !नाभि में रोजाना सरसों का तेल लगाने से आँखों की खुजली और खुश्की दूर हो जाती है !मुलेठी को दो घंटे तक पानी में भिगोकर रखे ! उसके बाद उस पानी में रुई डुबोकर पलकों पर रखें, ऐसा करने से आँखों की जलन व दर्द में आराम मिलता है !प्रात: काल उठते ही अपना बासी थूक संक्रमित आँखों पर लगाने से लाभ होगा !
काली मिर्च का चूर्ण, घी और मिश्री मिलाकर रोज सेवन करने से आंखों की रोशनी बढ़ती है।
प्रतिदिन पपीता खाने से आंखों की रोशनी बढ़ती है।
हरे धनिया को पीसकर उसका रस निकाल लें और उसे साफ कपड़े में छान लें और इसकी 2-2 बूंदें आंखों में डालने से दुखती आंखे ठीक होती हैं।
सेब का मुरब्बा खायें और उसके बाद दूध का सेवन करें एैसा करने से आंखों की रोशनी तेज होती है।
सुबह उठकर मुंह में ठंडा पानी भरकर मुंह को फुलायें और ठंडे पानी से आखों में छीटें मारें।
प्रतिदिन फल और सब्जियों का सेवन करने से आंखों की शक्ति बढ़ती है।
सुबह जल्दी उठकर पार्क में ओस पड़ी घास में नंगे पैरों से चलने से कमजोर आंखें तेज होती है।
प्रतिदिन यदि आप गाजर का जूस पिएं तो आंखों की रोशनी बढ़ेगी।
प्रतिदिन नहाने से पहले पांवों के अंगूठे में तेल मलकर नहाने से आंखों की रोशनी प्रबल होती है।
सेब के सेवन करने और उसका जूस पीने से आंखों की ज्याति तेज होती है।

नेत्र रोग घरेलू उपचार – दृष्टि के लिए आँखों के कुछ व्यायाम

आई रोलिंग
अपनी आँखों को घड़ी की सुई की दिशा में 10 बार घुमाएँ और 2 मिनिट के आराम के बाद उल्टी दिशा में 10 बार घुमायें। यह आँखों को स्वस्थ रखता है।
पेंसिल पुश-अप्स
आँखों की रोशनी बढाने का तरीका एक पेंसिल लें और उसके मध्य में कोई अक्षर लिखें या निशान लगायें अब इसे आँखों से सामने बाँहों की दूरी पर पकड़ें और उस निशान पर फोकस करें अब धीरे धीरे इसे नाक की ओर लायें और फोकस बनाये रखें। इसे तब तक करीब लायें जब तक यह दो भागों में न दिखाई देने लगे, और जैसे ही यह दो भागों में बंटे इसे हटा लें और थोड़ी देर आँखों को खुला छोड़ कर इधर उधर देखें। थोड़ी देर बाद पुनः इसे 4 से 5 बार दोहरायें। यह आँखों की रोशनी बढाने का सर्वोत्तम व्यायाम है।

कनपटी की मालिश
आँखो की कमजोरी, अपनी कनपटी के दोनों ओर एक साथ अंगूठों से घड़ी की दिशा मे और घड़ी की विपरीत दिशा मे 20 बार मालिश करें और इसी प्रकार नाक के जोड़ और माथे के बीच में भी मालिश करें।

नेत्र रोग हो तो :सरल उपचार और मंत्र 

किसीको नेत्र रोग है, आँखों की तकलीफ़ है, आँखों की रोशनी कमजोर है तो वे भगवान का.... अपने आराध्य का..... अपने सदगुरु को स्मरण करके ॐ पुष्कराक्षाय नम: जप करे और वे लोग प्राण मुद्रा का भी अभ्यास करे |

लोकोक्तियों में नेत्र-रोग निवारण

किसीको नेत्र रोग है, आँखों की तकलीफ़ है, आँखों की रोशनी कमजोर है तो वे भगवान का.... अपने आराध्य का..... अपने सदगुरु को स्मरण करके ॐ पुष्कराक्षाय नम: जप करे और वे लोग प्राण मुद्रा का भी अभ्यास करे |

लोकोक्तियों में नेत्र-रोग निवारण

1. काली मिर्च को पीसकर,घी बूरा संग खाय     नेत्ररोग सब दूर हों,गिद्ध-दृष्टि हो जाए

2. मिट्टी के नव-पात्र में,त्रिफला रात्रि में डाल     रोज़ सवेरे धोय के,नेत्ररोग को टाल

3. ताम्र के एक पात्र में, घमिरा रस को निचोय     रूई साफ भिगोय के,लीजे छांह सुखाय

4. सरसों तेल मिलाय के,आग में देहु जलाय     ढकिए थाली फूल की,काजल लेहु बनाय

5. कालिख सरसों तेल में,घिसै उंगली डार     ऐसे सरल उपाय सो,काजल करो तैयार

6. रतौंधी धुंधी खुजली या नेत्र लाल पड़ जाए     बढ़े रोशनी आंख की,सारे रोग नसाय

7. आंख-कान के मध्य में चूना लेप लगाय     आई आंख अच्छी करे और ललाई जाय

8. भुनी फिटकरी लीजिए,जल गुलाब में घोल     आंखों की जलन मिटे,ये वैद्य के बोल

9. केशर शहद मिलाय के,नेत्रन माहि लगाय     लाली और गरमी मिटै,रोग रतौंधी जाय

10. बरगद के दूध में घिस,कपूर लगाओ नैन       फूली मिटे छोटी-बड़ी,और पाओ सुख चैन

11. शुद्ध शहद में लीजिए,सेंधा नमक मिलाय       थोड़े दिन ही लगाइए,फूली देत मिटाय

रोजाना एक चम्मच शुद्ध शहद खाने से भी आंखों की रोशनी दुरूस्त रहती है 
यूं तो शरीर का हर एक अंग महत्वपूर्ण होता है लेकिन आंखों के बिना जीवन अधूरा लगता है। आयुर्वेद के ग्रंथों में नेत्र रक्षा के विभिन्न उपायों का वर्णन किया गया है। आइए जानते हैं उनके बारे में-

1. हरीतकी, बहेड़ा और आंवला का नियमित प्रयोग नेत्र ज्योति को बढ़ाता है। इन तीनों चूर्ण के मिश्रण की 3-6 ग्राम मात्रा रोजाना ली जा सकती है। 
2. त्रिफला के क्वाथ से रोजाना आंखों को धोने से नेत्र रोग दूर होते हंै। त्रिफला क्वाथ को शहद या घी के साथ लेने से भी नेत्र रोगों में लाभ होता है। त्रिफला चूर्ण को एक भाग घी व तीन भाग शहद के साथ लेने से लाभ होता है। 
3. रोजाना एक चम्मच शहद खाने से भी आंखों की रोशनी दुरूस्त रहती है। लेकिन ध्यान रहे कि शहद शुद्ध हो।
4. सुश्रुत संहिता के अनुसार रतौंधी यानी रात के अंधेपन के लिए अगस्त्य वृक्ष के फूल उपयोगी होते हैं। इन फूलों को पानी में भिगो दें कुछ देर बाद इन्हें मसलकर बंद आंखों पर रखें। 
5. आंखों को स्वस्थ रखने के लिए मुंह में ठंडा पानी भरकर तीन बार आंखों पर पानी के छींटे डालें। 
6. पांव के तलवों की रोजाना मालिश करने से भी आंखों की रोशनी बढ़ती है। इसके लिए नारियल तेल या तिल का तेल फायदेमंद होता है।
7. तला हुआ भोजन आंखों को नुकसान पहुंचाता है, जबकि दूध में पका हुआ अन्न आंखों के लिए लाभकारी होता है। ठंडी खीर में शहद मिलाकर सुबह-सुबह खाने से आंखों की रोशनी दुरूस्त रहती है।
8. आंखों को सेहतमंद बनाए रखने के लिए देर रात भोजन करने से बचें और गरिष्ठ भोजन से भी परहेज करें।
9. भेषज रत्नावली ग्रंथ के अनुसार जौ का नियमित प्रयोग आंखों को ठीक रखता है। इसके लिए पांच किलो गेहूं के आटे में एक किलो जौ का प्रयोग किया जा सकता है। 
10. मूंग की दाल भी नेत्र ज्योति को स्वस्थ बनाए रखती है।
11. शुद्ध घी को लोहे के बर्तन में रखना चाहिए। इस घी के प्रयोग से आंखों की रोशनी बनी रहती है। पुराने लेकिन शुद्ध घी की दो-दो बूंदें नाक में डालने से भी लाभ होता है।

      नेत्र रोगों में कुदरती पदार्थों से ईलाज करना फ़ायदेमंद रहता है। कम उम्र में चश्मा लगना आजकल आम बात होती जा रही है|  लेकिन ऐसा नहीं है कि  किसी कारण से एक बार चश्मा लग गया तो  वह उतर नहीं सकता | ऐनक लगने  के प्रमुख कारण आँखों की भली प्रकार देख रेख नहीं करना,पोषक तत्वों की कमी, या आनुवांशिक हो सकता है| इनमें से  आनुवांशिक को छोडकर  अन्य कारण से लगा चश्मा  सही देख भाल ,व् खान पान का ध्यान रखने के आलावा देशी उपचार के द्वारा  उतारा जा सकता है|
 मोतियाबिंद बढती उम्र के साथ अपना तालमेल बिठा लेता है। अधिमंथ बहुत ही खतरनाक रोग है जो बहुधा आंख को नष्ट कर देता है। आंखों की कई बीमारियों में नीचे लिखे सरल उपाय करने हितकारी सिद्ध होंगे-
१) सौंफ़ नेत्रों के लिये हितकर है। मोतियाबिंद रोकने के लिये इसका पावडर बनालें। एक बडा चम्मच भर सुबह शाम पानी के साथ लेते रहें। नजर की कमजोरी वाले भी यह उपाय करें। 
२) विटामिन ए नेत्रों के लिये अत्यंत फ़ायदेमंद होता है। इसे भोजन के माध्यम से ग्रहण करना उत्तम रहता है। गाजर में भरपूर बेटा केरोटिन पाया जाता है जो विटामिन ए का अच्छा स्रोत है। गाजर कच्ची खाएं और जिनके दांत न हों वे इसका रस पीयें। २०० मिलि.रस दिन में दो बार   लेना हितकर माना गया है। इससे आंखों की रोशनी भी बढेगी। मोतियाबिंद वालों को गाजर  का उपयोग  अनुकूल परिणाम  देता है।

३) आंखों की जलन,रक्तिमा और सूजन हो जाना नेत्र की अधिक प्रचलित व्याधि है। धनिया इसमें उपयोगी पाया गया है।सूखे धनिये के बीज १० ग्राम लेकर ३०० मिलि. पानी में उबालें। उतारकर ठंडा करें। फ़िर छानकर इससे आंखें धोएं। जलन,लाली,नेत्र शौथ में तुरंत असर मेहसूस होता है।
४) आंवला नेत्र की कई बीमारियों में लाभकारी माना गया है। ताजे आंवले का रस ५  मिलि. इतने ही शहद में मिलाकर रोज सुबह लेते रहने से आंखों की ज्योति में वृद्धि होती है। मोतियाबिंद रोकने के तत्व भी इस  उपचार   में मौजूद हैं।
५) भारतीय परिवारों में खाटी भाजी की सब्जी का चलन है।इसका अंग्रेजी  नाम Indian red sorrel  है|  खाटी भाजी के पत्ते के रस की कुछ बूंदें आंख में सुबह शाम डालते रहने से कई नेत्र समस्याएं हल हो जाती हैं। मोतियाबिंद रोकने का भी यह एक बेहतरीन उपाय है।

६)  अनुसंधान में साबित हुआ है कि कद्दू के फ़ूल का रस  दिन में दो बार आंखों में लगाने से मोतियाबिंद में लाभ होता है। कम से कम दस मिनिट आंख में लगा रहने दें।
७) घरेलू चिकित्सा के जानकार विद्वानों का कहना है कि शहद  आंखों में दो बार लगाने से मोतियाबिंद नियंत्रित होता है।

८)   लहसुन की २-३ कुली रोज चबाकर  खाना आंखों के लिये  हितकर है।  यह हमारे नेत्रों के लेंस को स्वच्छ करती है।
९) पालक  का नियमित उपयोग करना मोतियाबिंद में लाभकारी पाया गया है। इसमें एंटीआक्सीडेंट तत्व होते हैं। पालक में पाया जाने वाला बेटा केरोटीन नेत्रों के लिये परम हितकारी  सिद्ध होता है।  ब्रिटीश मेडीकल रिसर्च में पालक का मोतियाबिंद नाशक  गुण प्रमाणित हो चुका है।
१०)   एक और सरल उपाय बताते हैं| अपनी  दोनों हथेलियां आपस में  रगडें  कि कुछ  गर्म हो जाएं|  फिर  आंखों पर ऐसे रखें कि ज्यादा दबाव मेहसूस न हो।  हां, हल्का सा दवाब लगावे। दिन में चार-पांच  बार और हर बार आधा मिनिट के लिये करें।  आंखों की रोशनी बढाने का नायाब तरीका है|

११)  किशमिश ,अंजीर और खारक पानी में रात को भिगो दें और सुबह खाएं । मोतियाबिंद  और ज्योति  बढाने की  अच्छी घरेलू दवा है।
१२)  भोजन के साथ सलाद ज्यादा मात्रा में शामिल करें । सलाद पर थोडा सा जेतून का तेल  भी  डालें। इसमें प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करने  के गुण   हैं  जो नेत्रों के लिये भी हितकर है।
१३)  पाठकों , अब मैं  वो उपचार बता रहा हूँ  जिससे कई लोगों  के चश्मे  उतर गए हैं|  नेत्र  ज्योति वर्धक इस उपचार की जितनी भी प्रशंसा  की जाय थोड़ी है|  इसमें तीन पदार्थ जरूरी हैं|  बड़ी सौंफ,मिश्री और बादाम |  तीनों बराबर मात्रा में १००-१०० ग्राम  लेकर महीन पीस लें |  कांच के बर्तन  में  भर कर  रखें|  रात को सोते वक्त दस ग्राम चूर्ण  एक गिलास  गरम दूध के साथ  लें|  यह प्रयोग ४०-५० दिन तक निरंतर करना है| 
१४) सूरज मुखी के बीजों का सेवन करना  आंखों के लिए सेहतमंद रहता है| इसमें विटामिन सी,विटामिन ई,बीता केरोटीन और एंटीआक्सीडेंटस होते है जो  आंखों  की  कमजोरी  दूर करते हैं| 

१५)  दूध व् अन्य डेयरी   उत्पाद  का पर्याप्त मात्रा में उपयोग करना नेत्र  विकारों में फायदेमंद  रहता है|  इन चीजों से आखों को उचित पोषण मिलता है|

१६) केवल बादाम का सेवन भी  आँखों  के लिए बहुत फायदेमंद  होता है|  रोजाना चलते फिरते  ८-१० बादाम  खाने से जरूरी मात्रा में विटामिन ई  प्राप्त होने से आँखें  स्वस्थ  रहती हैं|  बादाम में रेशा,वसा,विटामिन और मिनरल  पर्याप्त मात्रा में होते हैं| आयुर्वेद में उल्लेख है कि बादाम को भिगोकर खाने के बजाय अंकुरित करके  खाना ज्यादा  लाभप्रद होता है| अंकुरित करने के लिये बादाम १२ घंटे पानी में भिगोएँ | छानकर  बादाम सुखालें| कांच के जार में  रखें और अंकुरित होने के लिये ३- ४ दिन फ्रीज में रखें|

   रात को नो  बादाम भिगोएँ ,सुबह पीसकर पानी में घोलकर पी जाएँ|  इससे आँखे स्वस्थ रहती हैं| और निरंतर  उपयोग से आँखों का चश्मा  भी उतर जाएगा|

१७)  आँखों को स्वस्थ रखने के लिए  सोया मिल्क ,दही,मूंगफली,खुबानी का उचित मात्रा में सेवन करना लाभ दायक है|     

१८)  एक शौध के अनुसार  हरे पतेदार सब्जियों में केरोटिन नामक पिगमेंट  की ऐसी मात्रा मौजूद रहती है जिसमें आँखों की  रोशनी  तेज करने की क्षमता  होती है| विशेषज्ञों  के  अनुसार  यह  कुदरती केरोटीनाईड  आँख की पुतली पर सकारात्मक प्रभाव  डालता है और आँखों की रोशनी सुरक्षित रखने के अलावा  अनेक नेत्र रोगों से भी बचाव करता है|

 १९)  एक चने के दाने बराबर फिटकरी  को सेककर इसे १०० ग्राम गुलाब जल में डालें  और रोजाना सोते वक्त २-बूँदें आँख में डालने से  चश्मे का नंबर  कम हो जाता है|

२०)  बिल्व पत्र  का ३० मिली रस पीने और २-४ बूँद रस आँखों में  काजल की तरह लगाने से  रतौंधी  रोग में लाभ होता है|  अंगूर का रस भी आँखों के लिए वरदान तुल्य माना गया है| 

२१)  इलायची  आँखों के लिये बहुत लाभदायक होती है\ रात को सोने से पहले  २ इलायची पीसकर दूध में डालें| अच्छी तरह  उबालकर  फिर मामूली गरम  हालत में पी जायें|  इससे आँखों की रोशनी बढ़ती है|

२२) अनुलोम-विलोम प्राणायाम करते रहने से  नेत्र ज्योति  बढ़ती है|

२३)  हल्दी की  गांठ को तुवर की दाल में उबालकर  फिर छाया में सुखाकर रखलें|   इसे पानी में घिसकर सूर्यास्त से पूर्व  आँखों में काजल की तरह लगाएं | आँखे स्वस्थ रहती हैं और आँखों की लालिमा भी  दूर होती है|   

नेत्र-ज्योतिवर्द्धक व्यायाम और प्राकृतिक उपाय

आँखों का स्वास्थ्य असंयमित और अनियमित जीवनशैली के कारण बिगड़ता है। आँखों की बनावट सूक्ष्म तथा पूर्ण हैं। आँखें उसी समय तक ठीक काम कर सकती हैं जब तक कनीनिका, जलीय द्रव, ताल और  ताल के पीछे रहने वाले द्रव स्वच्छ रहते हैं। इनमें से किसी के भी अस्वच्छ होने पर दृष्टि में दोष उत्पन्न हो जाता है। दृष्टिपटल, मध्य पटल, दृष्टि नाड़ी तथा दृष्टि केन्द्रों के रोगों से भी दृष्टि खराब हो जाती है।
छोटे अक्षरों को पढ़ने, सीने-पिरोने,चित्रकारी करने, स्वर्णकारी करने, घड़ीसाजी करने आदि से आँखों  पर  दबाव पड़ता है। कम प्रकाश में पढ़ने या कोर्इ अन्य कार्य करने से भी आँखों को हानि पहुँचती है। अधिक  प्रकाश जैसे सूर्य या आग की ओर बहुत देर तक देखना भी हानिकारक है। झुककर या लेटकर पढ़ने से भी आँखों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। सामने से आता प्रकाश भी आँखों के लिए अच्छा नहीं होता है। पढ़ते या लिखते समय प्रकाश हमेशा बार्इ ओर से या पीछे से आना आँखों के लिए सर्वोत्तम होता है।
आँखों की भीतरी बनावट और व्यवस्था इस प्रकार से है कि पूरी आयु तक हमारी आँखें स्वस्थ रह सकती हैं, लेकिन आधुनिक जीवन में पर्यावरण, गलत खान-पान, विटामिन ‘ए’ की कमी, दूरदर्शन तथा फिल्म अधिक देखने से लोगों, विशेषकर बच्चों की आँखें खराब रहने, दृष्टि कमजोर हो जाने, जल्दी चश्मा लग जाने की शिकायत हो जाती है। थोड़ी-सी सावधानी से आँखों के रोगों से बचा जा सकता है और आँखों को स्वस्थ रखा जा सकता है।
नींद कम लेने, लगातार नजला-जुकाम रहने, धुआं और धूल वाले स्थान पर रहने, आँखों की अच्छी तरह सफार्इ न करने आदि से भी आँखों की दृष्टि पर बुरा प्रभाव पड़ता है। आँखों के कुछ ऐसे व्यायाम हैं जिनका प्रतिदिन अभ्यास करने से नेत्र ज्योति सदा ही बनी रहती है और नेत्रों का आकर्षण एंव स्वास्थ्य भी सही रहता है। दृष्टि के सभी प्रकार के रोगों का मूल कारण आँखों की बाहरी पेशियों पर तनाव पड़ना है, जो धीरे-धीरे आँखों का आकार ही बदल देता है। पास की दृष्टि में नेत्र गोलक की लम्बार्इ बढ़ जाती है, जिससे दूर के पदार्थों को देखने में असुविधा रहती हैं दूर की दृष्टि तथा वृद्धावस्था की अल्प दृष्टि में नेत्र-गोलक संकुचित अवस्था में रहते है, जिससे पास की वस्तु को देखना कठिन हो जाता है।
आँखों के व्यायाम नेत्र संबंधी दोषो से मुक्ति पाने में व्यक्ति की पूरी मदद करते हैं। यहां कुछ नेत्र व्यायाम दिए जा रहे हैं, जिनके अभ्यास से आप नेत्र समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं।
करतल विश्राम :
आँखे ढीली बंद करें। दोनों हाथों की हथेलियां प्याली की तरह बनाकर गाल की हड्डियों पर रखते हुए उनसे अपनी बंद आँखों को इस प्रकार ढकें कि हथेलियां आँखों को न छुएं। हथेलियों से आँखे ढकते समय ध्यान रखें कि न तो  आँखों पर कोर्इ दबाव ही पड़े और न ही कहीं से प्रकाश आ सके। हाथ और आँखें तनाव रहित रखें। मस्तिष्क को तनावमुक्त रखने के लिए बिल्कुल कालापन का अनुभव करें। सही रीति के करतल-विश्राम में कालापन देखने के लिए कोर्इ प्रयास न करें बल्कि बिना किसी प्रयास के सहज ही बिल्कुल कालापन का अनुभव होना चाहिए क्योंकि तभी आँखें और मस्तिष्क विश्राम की अवस्था में हो सकते हैं।
कुछ समय तक इसी अवस्था में रहने के बाद आप हाथ हटाकर तेजी से आँखें मिचकाइए और आँखें खोलिए। अब आप देखेंगे कि आपकी आँखें अधिक ताजगीपूर्ण और शक्तिशाली हो गर्इ है।
करतल-विश्राम का अभ्यास दिन में चार-पाँच बार, दो से दस मिनट तक कर सकते हैं। आँखों पर अनावश्यक दबाव से उत्पन्न रोगों तथा मोतियाबिंद की शांति के लिए करतल-विश्राम बहुत लाभदायक है और इसे प्रतिघंटे कुछ मिनट तक अवश्य करना चाहिए।
करतल-विश्राम में काले रंग का ध्यान के साथ-2 मस्तिष्क को आरामदेह स्थिति में रखना भी आवश्यक है। सोचना बिल्कुल बंद कर दें। यदि ऐसा न कर सकें तो कम से कम मस्तिष्क को अशांत करने वाले विचार जैसे खराब स्वास्थ्य, मन की सुस्ती, चिंता, क्रोध, आदि से मुक्त रखें और इनके स्थान पर अच्छे स्वास्थ्य एवं सुखद विचार में महत्व दें।
पुतली घुमाने की क्रियाएं :
आँखों की मांसपेशियों और आँखों से संबंधित स्नायु को ताकतवर व तनाव रहित बनाने के लिए करतल-विश्राम के अलावा इन व्यायामों को भी करना चाहिए।
पुतलियों को उपर-नीचे घुमाएं। इसके लिए रीढ़ सीधी और गर्दन को स्थिर रखकर बिना सिर घुमाएं दोनों पुतलियों को उपर - नीचे घुमाए अथार्त दोनों पुतलियों को पहले उपर की ओर ले जाते हुए आकाश देखें और फिर नीचे लाते हुए धरती देखें। इस तरह सहजता से क्रमष: उपर नीचे छ: बार देखें।
पुतलियों को बाएं-दाएं घुमाएं, मानों पुतलियां क्रमश: बाएं-दाएं कान को देख रही हों। सहजता से ऐसा छ: बार करे।
पुतलियों को चक्राकार घुमाएं अर्थात पहले बाएं से दाऐ बड़ा से बड़ा गोला बनाते हुए गोलकार घुमाएं और फिर दाएं से बाएं घुमाएं। ऐसा चार बार सहजता से करें।
इस प्रकार ( उपर-नीचे, बाएं-दाएं और गोलाकार घुमाने की ) तीनों क्रियाएं पहले धीरे-धीरे और बाद में जल्दी-जल्दी करें। प्रत्येक क्रिया चार-छ: बार करने के बाद कोमलता से पलक झपकाकर आँखें बंद करके कुछ क्षण विश्राम कर लें।
इन्हें दो-तीन बार, बीच-बीच में विश्राम देकर दोहराया जा सकता है। पुतली घुमाने से नेत्र-पेशियों का तनाव हटकर बहुत आराम मिलता है और दृष्टि शक्ति बढ़ती है।


दृष्टि को बार-2 बदलने का अभ्यास करना चाहिए। दृष्टि को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर ले जाने या एक बिंदु को देखकर दूसरे बिंदु पर दृष्टि ले जाने को ‘दृष्टि - ध्यान’ कहते हैं। अंगुठे के पास वाली तर्जनी उंगली अपनी आँखों के सामने 10 इंच की दूरी पर रखें। अब उंगली के उपरी सिरे पर दृष्टि जमाएं और उसे साफ-2 देखें। फिर उंगली को सीध में 20 फीट दूर कोर्इ बड़ी वस्तु जैसे खिड़की को देखें। दृष्टि को पास और दूर केंद्रित करें अर्थात बारी-बारी से दूर-पास देखें। यह क्रिया दस बार करने के बाद एक क्षण के लिए पलक झपकाकर विश्राम करें तथा दोहराएं। यह दृष्टि अनुसरण( Accommodation ) सुधारने के लिए विषेश गुणकारी है। स्वस्थ दृष्टि किसी एक बिंदु पर अधिक देर तक स्थिर नहीं रहती है बल्कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलती रहती है।
पलक झपकाएं। पलक झपकाना अर्थात् पलकों को जल्दी-जल्दी बंद करने और खोलने की क्रिया से आँखों को आराम मिलता है, जिससे नजर तेज होती है। पलकें न झपका सकने का अर्थ है आँखों में तनाव और गड़बड़ी। इसलिए एकटक देखने की आदत पड़ने पर दिन में कर्इ बार पलकें झपकाने का अभ्यास करना शुरू करना चाहिए। जैसे एक बार में लगातार दस बाद पलक झपकना। पढ़ते समय भी प्रत्येक दस सेंकड़ में एक या दो बार पलक झपकनी चाहिए। पलक झपकने से आँखों की थकान मिटती है, आँख की पेशियां सिकुड़ने और फैलने से रक्त संचार सुधरता है। और अश्रु ग्रंथि से पर्याप्त तरल निकलते रहने से आँख साफ गीली और चमकदार रहती है।
हंसने और मुस्कराने का आँखों पर हितकारी प्रभाव पड़ता है और आँखों में एक मुग्ध कर देने वाली चमक आ जाती है। हंसने से दिल हल्का होता है, तनाव घटता है, और मानसिक तनावजन्य रोग जैसे थकान, चिंता, विषाद, चिड़चिड़ापन आदि मिटते हैं। प्रतिदिन चार-पांच किलोमीटर दौड़ने से जो व्यायाम होता है और उससे जो शारीरिक क्षमता बढ़ती है, उतनी ही पांच मिनट हंसने से बढ़ती है। कम से कम दिन में तीन बार खिलखिलाकर हंसना चाहिए। उन्मुक्त हंसी से मस्तिष्क से लेकर संपूर्ण नाड़ी-मंडल स्पंदित हो उठता है और फेफड़ों की अशुद्ध वायु शरीर से बाहर निकल जाती है। हंसने से न केवल मानसिक तनाव घटता है बल्कि रक्त संचालन और पाचन भी सुधरता है।
आँखों के लिए योगासन :
आँखों के सौंदर्य और अच्छे स्वास्थ्य के लिए अर्द्धमत्स्येंद्रासन उष्ट्रासन, धनुरासन, हस्तपादोत्तानासन, हलासन, सर्वांगासन, शीर्षासन आदि का नियमित अभ्यास होना चाहिए। इनमें से उष्ट्रासन की विधि यहाँ प्रस्तुत है-
उष्ट्रासन :
वज्रासन में बैठिए। अब एड़ियों को खड़ा करके उन पर दोनों हाथों को रखें। हाथों को इस प्रकार रखें कि अंगुलियाँ अंदर की तरफ अंगुश्ठ बाहर को हों।
श्वास अंदर भरकर सिर एवं ग्रीवा को पीछे मोड़ते हुए कमर को उपर उठाएं। शवास छोड़़ते हुए एड़ियों पर बैठ जाएं। इस प्रकार तीन-चार आवर्त्ति करें।
योगासनों से साथ-साथ प्रतिदिन सूत्र तथा जलनेति का भी अभ्यास करें। सप्ताह में तीन बार कुंजल करें। खुली हवा में सैर करे।

प्राकृतिक प्रयोग

आँखों को प्रतिदिन ताजा शीतल पानी या त्रिफला के पानी से धोएं।
पढ़ते समय या टी वी देखते समय आँखों को झपकाते रहें।
कान में तेल, नाक में शुद्ध घी और आँख में मधु डालने से आँखे स्वस्थ रहती है।
आँखों के चारों ओर हाथों की उंगलियों से अच्छी तरह मालिश इस प्रकार करें कि आँखों पर दबाव न पड़े। इसके बाद ठंड़े पानी से आँखों को धोएं या ठंडे पानी की पट्टी रखें। ऐसा दिन में दो-तीन बार करे।  
अपने भोजन में पर्याप्त मात्रा में विटामिन ‘ए’ युक्त आहार का प्रयोग करें। हल्का तथा सुपाच्य भोजन करें। रोगी का 50 प्रतिशत भोजन कच्चा फल, सब्जी, रस, सलाद आदि  और 50 प्रतिशत पका सुपाच्य भोजन होना चाहिए।
नेत्र-ज्योति बढ़ाने और चश्मा छुड़ाने के लिए-बदाम-गिरी, सौंफ (बड़ी), मिश्री कूंजा-तीनों को बराबर मात्रा में लेकर कूट-पीसकर बारीक चूर्ण बना लें और किसी कांच के बर्तन में रख दें। प्रतिदिन रात में सोते समय 10 ग्राम की मात्रा 250 ग्राम दूध के साथ चालीस दिन तक निंरतर लें। इससे दृष्टि इतनी तेज हो जाती है कि चश्मे की जरूरत ही नहीं रहती है। इसके अतिरिक्त इससे दिमागी कमजोरी, दिमाग की गर्मी, दिमागी तनाव और बातों को भूल जाने की बीमारी भी दूर हो जाती है।
बच्चों को उपरोक्त नुस्खा आधी मात्रा में दें। पूर्ण लाभ के लिए औषधि के सेवन के दो घंटे तक पानी न पीएं। नेत्र ज्योति के साथ-साथ याद्दाश्त भी बढ़ती है। कूंजा मिश्री न मिले तो साधारण मिश्री का प्रयोग करे।
सुबह उठते मुँह में पानी भरकर मुँह फुलाकर ठड़े जल से आँखों पर छींटे मारें। ऐसा दिन में तीन बार करें।
आंवला, हरड़, बहेड़ा ( गुठली रहित ) समान मात्रा में लेकर उन्हें कूटकर चूर्ण बना लें। प्रतिदिन शाम को इसमें से 10 ग्राम त्रिफला चूर्ण को कोरे मिट्टी या शीशे के बर्तन में एक गिलास पानी डालकर भिगो दें। सुबह इसको मसलकर छान लें। फिर इसके निथरे हुए पानी से हल्के हाथ से नेत्रों को खूब छींटे लगाकर धो लिया करें। इससे आँखों की ज्योति की रक्षा होती है और नजर तेज होती है। आँखों की अनेक बीमारियाँ भी ठीक हो जाती हैं। इस त्रिफला जल से निंरतर महीने दो महीने से कम नजर आना, आँखों के आगे अधेंरा छा जाना, सिर घूमना, आँखों में उष्णता, रोहें, खुजली, दर्द, लाली, जाला, मोतियाबिंद आदि सब नेत्र रोगों  का नाश होता है।
नेत्र रोगी उपचार के दौरान मैदा, चीनी, धुले हुए चावल, खीर, उबले हुए आलू, हलवा भारी तथा चिकनार्इ वाले भोजन, चाय, काफी शराब, अचार, मुरब्बे, टॉफियों, चॉकलेट आदि का सेवन न करें।
कद्दूकस किया हुआ आंवला या आंवला का मुरब्बा, पपीता, पका आम, दूध, घी, मक्खन, मधु, काली मिर्च, घी-बूरा, सौंफ-मिश्री, गुड़, सूखा धनिया, चौलार्इ, पालक, पत्तागोभी, मेथी पत्ती, कढ़ी पत्ती आदि कैरोटीन प्रधान प​त्तियों वाली वनस्पतियां, पालक या कढ़ी पत्ती युक्त दाल, अंकुरित मूंग, गाजर, बादाम, मधु आदि का सेवन आँखों के लिए हितकारी है।
इलायची के दानों का चूर्ण और शक्कर समभाग में लेकर उसमें एंरड का तेल मिलाकर चार ग्राम की मात्रा में प्रतिदिन सुबह खाने से 40 दिनों में ही नजर की कमजोरी दूर हो जाती है। इससे आँखों में ठंड़क आती है और नेत्र ज्योति बढ़ती है।
हरा धनिया पीसकर उसका रस निकालकर दो-दो बूंद आँखों में प्रतिदिन डालने से भी आँखों की ज्योति में वृद्धि हो जाती है।

Chashma Hataane ke Ghrelu Aayurvedic Upay

आँखों की रोशनी बढ़ाने के आसान तरीके ( Simple Ways for Good Eye Vision ) :
बादाम और सौंफ ( Almond and Fennel ) : बादाम और सौंफ दोनों ही आँखों की रोशनी बढाने के लिए लाभदायी माने जाते है, साथ ही ये दोनों ही ऐसी सामग्री या पदार्थ है जो लगभग हर घर में उपलब्ध भी होता है. इसीलिए इस उपाय को सबसे अधिक अपनाया भी जाता है.

उपाय ( Remedy ) : इसके उपाय को अपनाने के लिए आप समान मात्रा में मिश्री, बादाम और सौंफ लें और उन्हें अच्छी तरह पीसकर उसका पाउडर बना लें. इससे पाउडर को लगभग 1 महीने तक डिब्बे में पडा रहने दें. उसके बाद आप रोजाना रात को सोते हुए इस पाउडर को 10 ग्राम की मात्रा में लें और 250 ग्राम पानी के साथ सेवन करें. इस उपाय को नियमित रूप से 40 तक अपनाने से ना सिर्फ आपकी आँखों की रोशनी तेज होती है बाकि आपकी यादाश्त और दिमाग भी मजबूत और तेज होता है.

त्रिफला ( Triphala ) : त्रिफला में मौजूद चमत्कारिक तत्वों के कारण आयुर्वेद में इसका एक अहम स्थान है. त्रिफला तीन फलों ( आंवला, हरड और बहेड़ा ) से मिलकर बना है और इसीलिए इसे त्रिफला कहा जाता है. ये लगभग हर बिमारी के इलाज के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इनमे ऐसे कुछ तत्व भी मौजूद होते है जो चश्मा हटाने में भी सहायक होते है. CLICK HERE TO KNOW आँखों की देखभाल कैसे करें ... 
चश्मा हटाने के घरेलू आयुर्वेदिक उपाय 
चश्मा हटाने के घरेलू आयुर्वेदिक उपाय
उपाय ( Remedy ) : आप त्रिफला लें और उसे सुखाकर पीस लें. प्राप्त चूर्ण से आप 1 चम्मच लें और उसे 1 ग्लास पानी में डाल कर रात भर रख कर सो जाएँ. अगले दिन प्रातःकाल के समय आप पानी को छानकर उसे अपनी आँखों को धोयें. इस उपाय को आप 1 महीने तक अपनाएँ. आपको समय के साथ साथ अपनी आंखों में फर्क खुद महसूस होने लगेगा. ये आँखों के इलाज का एक रामबाण इलाज माना जाता है.

एक प्रयोग ( An Experiment ) : निम्नलिखित प्रयोग के इस्तेमाल से शत प्रतिशत आँखों की रोशनी, स्वस्थ बलवान शरीर और बुद्धिमता प्राप्ति के परिणाम मिले है. इसलिए इस उपाय को नेत्र ज्योति बढाने का सबसे अधिक सफल तरीका माना जाता है. साथ ही इस उपाय को वो व्यक्ति भी अपना सकता है जिनकी आँखें ठीक है.

उपाय ( Remedy ) : आप एक कुल्हड़ लें और उसमे एक ग्लास पानी डालें. इसके बाद आप पानी में 5 ग्राम बादाम, 10 ग्राम खसखस, 5 ग्राम मगजकरी, 5 से 6 काली मिर्च, 4 ग्राम मालकंगनी और 5 ग्राम गोरखमुंडी डालें. और इसे रात भर भीगने के लिए छोड़ दें.
सुबह उठने पर आप पानी को अलग कर बाकी के मिश्रण को अच्छी तरह से पीस लें और इसे देशी घी में डालकर लाल होने तक भुनें. अब आप इसमें 400 मिलीलीटर दूध गर्म करें और इस मिश्रण को डालें. आप स्वादानुसार मिश्री भी डाल सकते हो और इसके बाद आप इसका सेवन करें. इस उपाय को आप 15 दिनों तक अपनाएँ. इसके चमत्कारिक लाभ आपके सामने होंगे.

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मिश्रण में मिलाया हर तत्व अपना महत्व रखता है और उसी अनुसार लाभ पहुंचाता है जैसेकि बादाम, खसखस और मगजकरी से बुद्धि तेज होती है, तो मालकंगनी से शरीर स्वस्थ और बलवान होता है. ये यादाश्त बढाने में भी सहायक होता है. ये सब मिलकर आँखों के लिए लाभकारी सिद्ध होते है. इस तरह से ये प्रयोग पूर्ण शरीर के लिए लाभकारी सिद्ध होता है.

आंवला ( Amla ) : जहाँ आयुर्वेद की और शरीर को स्वस्थ बनाने की बात हो और वहाँ आंवले का नाम ना आयें, ऐसा कभी भी नही हो सकता. बिना आंवले के आयुर्वेद का कोई महत्व नही क्योकि ये वो चीज है जो खुद तो गुणकारी है ही साथ ही जिसके साथ इसे मिलाया जाता है ये उसके गुणों में भी वृद्धि कर देता है. इसका लाभ उठाने के लिए आप इसे किस भी तरह से ( जैम, मुरब्बा, दवाई, जूस, हलवा, आचार, कच्चा खायें, लेप, पाउडर इत्यादि ) इस्तेमाल कर सकते है.  

उपाय ( Remedy ) : आँखों की रोशनी में वृद्धि करने के लिए आप आंवले का जूस निकाल लें और इसमें कुछ मात्रा में शहद मिलाएं. आप जूस का रोजाना सुबह शाम नियमित रूप से सेवन करें. इसके अलावा आप एक अन्य उपाय भी अपना सकते हो जिसके लिए आप आंवलों को सुखा लें और उन्हें पीसकर उसका पाउडर बना लें. प्राप्त पाउडर को आप 1 चम्मच की मात्रा में रोजाना रात को सोने से पहले दूध या पानी के साथ लें. निश्चित रूप से आपकी आँखों में आराम मिलेगा.

मुलेठी ( Liquorice ) : एक अन्य उपाय के अनुसार आप कुछ मुलेठी लेकर उसका पाउडर तैयार करें. आप 1 चम्मच पाउडर में समान मात्रा में शहद और ½ चम्मच देशी घी मिलाएं. इसके बाद आप इस मिश्रण को एक ग्लास गरमागर्म दूध में डालें और 3 महीनों तक इसका नियमित रूप से सेवन करें. धीरे धीरे आपकी आँखों की रोशनी में इजाफा होने लगेगा.

नुसखे : नेत्र रोग

• यदि आँखों में जलन व लालिमा रहती हो तो ग्वार पाठे का ठण्डा गूदा आँखों पर बांधें। इससे लाभ होता है।
• त्रिफला चूर्ण को शहद में मिलाकर रात को सोते समय सेवन करने से आँखों की बहुत-सी बीमारियाँ दूर हो जाती हैं।
• आँवलेेेे को कूट कर दो घण्टे तक पानी में उबालने के बाद छानकर ठंडा करके दिन में तीन बार इस जल की बूंदें आँखों में डालें। इससे नेत्र रोग से राहत महसूस होती है।
• बेल की पत्तियों का रस निकाल कर बारीक कपड़े से छान लें। एक-दो बूँदें आँख में डालने से आँख का दर्द करना, आँख आना तथा आंखों से धुंधलापन की शिकायत दूर हो जाती है। आँखों की चुभन, पीड़ा, शूल आदि से भी राहत महसूस होती है।
• आंखों के इलाज में लौकी का छिलका बहुत उपयोगी है। लौकी का छिलका साये में सुखाने के बाद इसे जला लें। इसे खरल में पीस कर बहुत बारीक कर लें। सुबह तीन-तीन सलाई दोनों आँखों में सुरमे की तरह लगाने से कुछ दिनों के बाद आंख संबंधी सारे विकार दूर हो जाते हैं।
• इमली के बीजों की गिरी पत्थर पर घिस कर लेप-सा बनाकर गुहेरी पर लगाने से ठण्डक मिलती है। इससे गुहेरी ठीक भी हो जाती है।

नेत्र रोग – कारण, लक्षण, आयुर्वेदिक उपचार व घरेलू उपचार?

कारण

आंखों में विभिन्न प्रकार के रोग जैसे धूप में चलना, ठंडी हवा का प्रभाव, नींद न आना, समय पर न सोना, रात में जागना, उल्टी को रोक लेना, आंखों में धुल पड़ जाना, आंखों में धूल और धुआं लगना, सिर तथा आंखों में चोट लगना, अधिक देर तक पढ़ना या आंखें गड़ाकर लिखना, धूप में चलने के बाद ठंडे पानी से स्नान कर लेना आदि कारणों से तरह-तरह के आँखों के रोग हो जाते हैं ।

लक्षण

आंखें कीचड़ फेंकने लगती हैं और लाल पड़ जाती हैं । कई खार सूजन भी आ जाती है । आँखों में कांटे की तरह खड़कन होती है । बार-बार पानी
आता है । दर्द भी होता है । कभी-कभी आंखों के कारण सिर में भी दर्द हो जाता है ।

उपचार

प्याज के रस में उसकी दोगुनी मात्रा में शहद मिलाएं । रोज आँखों में डालें । यदि आंखों में ज्यादा लगे, तो उतनी ही मात्रा में गुलाब जल डाल दें ।
नीम के पत्तों को उबालें, उसमें थोङी-सी फिटकिरी डालें और आँखों को अच्छी तरह धोएं । काफी लाभ होता है ।
नीम के पत्तों का अर्क तथा मुण्डी का अर्क मिलाकर आंखों में डालने, से लाली छंट जाती है ।
नीम के पत्ते और मकोय का रस मिलाकर आँखों की पलकों पर लगाने से लाली छंट जाती है और पानी निकलना भी बंद को जाता है ।
बबूल तथा नीम के पत्तों का काढ़ा बनाकर शहद के साथ आँखों में लगाएं ।
रसौत को पानी में घिसकर आंखों को पलकों पर लगाएं ।
लहसुन की चार कलियां पानी में भिगो दें । सुबह जलपान से पूर्व इन कलियों को खाकर ऊपर से वह पानी भी पी लें । इसके सेवन से मोतियाबिन्द भी नष्ट हो जाता है ।

हमें कौनसा जल पीना चाहिए और कैसे करें उसको शुद्ध

 बंद कर दो RO का प्रयोग


दोस्तों जीवन की 3 मूल आवश्यकताओं में से 1 है जल यानि पानी | इसके बिना कोई भी प्राणी अपने प्राण नहीं बचा सकता.. इस जल को विकासवाद ने जितना दूषित किया है उससे आज हमारे सामने समस्याओं का बिमारियों का अम्बार खड़ा हुआ है. 1 दिन भी हम जल पिए बिना नहीं रह सकते, यह सत्य है और एक दिन में ही हम कितना सारा जल पि जाते हैं. अगर ये कहा जाए कि जिंदगी में पानी के बिना कुछ भी संभव नहीं है, तो गलत नहीं होगा। प्यास बुझाने के अलावा, खाना बनाने जैसे तमाम काम पानी के बिना संभव नहीं हैं। कई लोगों की नजर में पानी की शुद्धता जरूरी नहीं होती। लेकिन आपकी यह सोच आपके और आपके परिवार के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। नहाने के पानी से लेकर पीने के पानी तक की शुद्धता मायने रखती है। जहां अशुद्ध पानी पीने से असं2य रोगों को निमंत्रण मिलता है, वहीं अशुद्ध पानी से त्वचा संबंधी बीमारियों को न्योता मिलता है। अगर आंकड़ों की मानें, तो पीने के पानी में 2,100 विषैले तत्व मौजूद होते हैं। ऐसे में बेहतरी इसी में है कि पानी का इस्तेमाल करने से पहले इसे पूरी तरह से शुद्ध कर लिया जाए, क्योंकि सुरक्षा में ही सावधानी है। लेकिन विकासवाद की अंधी दौड़ में हमने इस और ध्यान ही नहीं दिया की हम कौनसा जल पि रहे हैं, कौनसा पीना चाहिए और हमारे शरीर में जो नई बीमारियाँ हैं कहीं उनका कारण यह दूषित जल तो नहीं.

पहला प्रशन?  हम कौनसा जल पी रहे हैं ?


R.O का पानी, किसी कम्पनी ने अपने उत्पाद बेचने के लिए बिकाऊ मीडिया के साथ मिलकर R.O. की झूठी मनगड़ंत कहानी क्या सुनाई, सारी दुनिया भेडचाल में पागल हो गयी और सबने लगवाया लिया यह सिस्टम. सब अपने आप में एक्सपर्ट बन बैठे की इतने TDS का पानी सही, इतने TDS गलत. RO ये कर देगा RO वो कर देगा. फुल बकवास.. अरे मेरे भाई यह तो सोच लेते, की जब RO नहीं था तब क्या लोग ज्यादा बीमार थे , पिने को शुद्ध पानी नहीं मिलता था. अब कुछ मुर्ख यह तर्क देंगे की अब पानी ज्यादा गन्दा हो गया इसलिए RO की जरुरत पड़ी.. पहली बात तो मेरे महान ज्ञानियों इस बात को समझो की पानी कितना ही गन्दा हो जाए उसके लिए हमारे पास मुफ्त जी हाँ बिलकुल मुफ्त की तकनीक है तो उसे छोड़कर आप सब क्यूँ पागल बने डोल रहे हो.. और अभी भी RO से विश्वास नही टूट रहा हो तो जान लो यह सब बातें..

Ro water is very harmfull for our body WHO report About RO water1

यह भी जान लो की कल भी यह WHO था जब RO WATER को शुद्ध कहकर बिकवाया था.

आज भी वही WHO है जो उल्टा कह रहा..

तो पहले सच बोला या अब बोला यह आप ही तय करो..

 बोतलबंद पानी 


वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो बोतलबंद पानी का कारोबार खरबों में पहुंच गया है। शुद्धता और स्वच्छता के नाम पर बोतलों में भरकर बेचा जा रहा पानी भी सेहत के लिए खतरनाक है। यह बात कई अध्ययनों में उभरकर सामने आई है। इसके अलावा बोतलबंद पानी के इस्तेमाल के बाद बड़ी संख्या में बोतल कचरे में तब्दील हो रहे हैं और ये पर्यावरण के लिए गंभीर संकट खड़ा कर रहे हैं।

अमेरिका की एक संस्था है नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल। इस संस्था ने अपने अध्ययन के आधार पर यह नतीजा निकाला है कि बोतलबंद पानी और साधारण पानी में कोई खास फर्क नहीं है। मिनरल वाटर के नाम पर बेचे जाने वाले बोतलबंद पानी के बोतलों को बनाने के दौरान एक खास रसायन पैथलेट्स का इस्तेमाल किया जाता है। इसका इस्तेमाल बोतलों को मुलायम बनाने के लिए किया जाता है। इस रसायन का प्रयोग सौंदर्य प्रसाधनों, इत्र, खिलौनों आदि के निर्माण में किया जाता है। इसकी वजह से व्यक्ति की प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है। बोतलबंद पानी के जरिए यह रसायन लोगों के शरीर के अंदर पहुंच रहा है।

यह रसायन उस वक्त बोतल के पानी में घुलने लगता है जब बोतल सामान्य से थोड़ा अधिक तापमान पर रखा जाता है। ऐसी स्थिति में बोतल में से खतरनाक रसायन पानी में मिलते हैं और उसे खतरनाक बनाने का काम करते हैं। अध्ययनों में यह भी बताया गया है कि चलती कार में बोतलबंद पानी नहीं पीना चाहिए। क्योंकि कार में बोतल खोलने पर रासायनिक प्रतिक्रियाएं काफी तेजी से होती हैं और पानी अधिक खतरनाक हो जाता है।

बोतल बनाने में एंटीमनी नाम के रसायन का भी इस्तेमाल किया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि बोतलबंद पानी जितना पुराना होता जाता है उसमें एंटीमनी की मात्रा उतनी ही बढ़ती जाती है। अगर यह रसायन किसी व्यक्ति की शरीर में जाता है तो उसे जी मचलना, उल्टी और डायरिया जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। इससे साफ है कि बोतलबंद पानी शुद्धता और स्वच्छता का दावा चाहे जितना करें लेकिन वे भी लोगों के लिए परेशानी का सबब बन सकती हैं।

बोतलबंद पानी के खतरनाक होने की पुष्टि कैलीफोर्निया के पैसिफिक इंस्टीटयूट के एक अध्ययन से भी होती है। इस संस्थान ने अध्ययन करके यह बताया है कि 1990 से लेकर 2007 के बीच कम से कम एक सौ मौके ऐसे आए जबं बोतलबंद पानी बनाने वाली कंपनियों ने ही अपने उत्पाद को बाजार से हटा लिया। वह भी बगैर उपभोक्ताओं को सूचना दिए। कंपनियों ने ऐसा इसलिए किया कि इन मौकों पर बोतलबंद पानी प्रदूषित था।

इसके अलावा बोतलबंद पानी तैयार करने में भारी मात्रा में जल की बर्बादी हो रही है। एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने में दो लीटर सामान्य पानी खर्च होता है। यानी एक तरफ तो जल संरक्षण की बात चल रही है और दूसरी तरफ शुद्ध पेयजल तैयार करने के नाम पर पानी की बर्बादी की जा रही है। पानी की बर्बादी शुद्ध पेयजल देने वाली मशीनें भी भारी मात्रा में कर रही हैं। बोतलबंद पानी तैयार करने के नाम पर भूजल का दोहन जमकर किया जा रहा है। इसके बावजूद जो पानी तैयार हो रहा है वह स्वच्छ नहीं है।

हम तो आपको भारतीय संस्कृति और विज्ञान पर आधारित पानी शुद्ध करने का तरीका बता रहे हैं जिसमे न मुझे आपको कोई RO बेचना न ही मुझे आपसे कोई फायदा होगा

शुद्ध पेयजल स्वास्थ्य का मूलाधार है। बचपन में अच्छे पोषण और विकास के लिये शुद्ध पेयजल बिलकुल जरुरी है। अतिसार, दस्त, पीलिया, पोलिओ आदि अनेक रोग अशुद्ध पेयजल से फैलते है। इन रोगों से सभी को नुकसान होता है लेकिन बच्चों का कुछ ज्यादा ही नुकसान होता है। शुद्ध पेयजल से यह सारा नुकसान हम टाल सकते है और दवाओं का खर्चा भी। सामुदायिक पेयजल प्रावधान अच्छा हो तब भी घरेलू सुरक्षा बरतना जरुर है। इसके लिये अनेक पद्धती और तरीके उपलब्ध है।

हमें कौनसा जल पीना चाहिए और कैसे करें उसको शुद्ध 


पुराने जमाने से चली आ रही यह तकनीक सफ़ेद सूती कपडा लीजिये (2-4 लेयर्स) जितना गन्दा पानी उसके अनुसार उस पानी को इस कपडे से छानिये, इससे आपके पानी में मोटे कण व् गंदगी समाप्त होगी. अब उस पानी को उबालिए अच्छे से (इससे उसके वायरस कीटाणु इत्यादि समाप्त हो जायेंगे) फिर सामान्य तापमान पर ठंडा होने रख दीजिये. पानी तो वैसे शुद्ध हो चूका है और बिलकुल उपयुक्त है अब पिने के लिए लेकिन आप चाहें तो इसे और अच्छा (मिनरल वाटर) बना सकते हैं. तुलसी के पत्ते पानी में डालकर रखें.  जहाँ भी तुलसी का पौधा होता है, उसके आसपास का 600 फुट का क्षेत्र उससे प्रभावित होता है, जिससे मलेरिया, प्लेग जैसे कीटाणु नष्ट हो जाते हैं. इस पानी को ताम्बे के बर्तन में भरकर रखें. इस पानी को ट्रांसपेरेंट बर्तन में धुप में रखें जिससे पानी में क्रिस्टल्स बनेंगे और पानी की गुणवत्ता बढ़ जाएगी. पानी के बर्तन में सूती कपडे में कोयला या भारतीय देसी गाय के गोबर की जली हुई राख को बांधकर रखें. कार्बन सारा गंद अपने और खिंच लेगा. क्या आप जानते हो की जो water purifier सिस्टम आपके घर में लगा हुआ है उसमे भी यही कोयले की तकनीक इस्तेमाल की जाती है ? कृपया अपनी कैंडल को तोड़कर देखिये और जानिये इस सत्य को.. अब अगर आपको शुद्ध पानी चाहिए और बिमारियों से बचना है तो यह कार्य अपने प्रतिदिन के कार्य में जोडीये और स्वस्थ रहिये.

Sunday, April 23, 2017

बीज-वृक्ष : लोक अनुष्ठानों में

बीज-वृक्ष : लोक अनुष्ठानों में 



लोक अनुष्ठानों की परंपरा बहुत प्राचीन है। इसलिए इनमें प्राचीन संस्कृति के अवोष विद्यमान हैं और प्राय: सभी अनुष्ठानों में वृक्ष-वनस्पति किसी न किसी रुप में उपस्थित है। अनुष्ठान जीवन के प्रत्येक सन्दर्भ से जुड़े हुए हैं-सुख हो या दुख हो, धन सम्पत्ति का अभाव हो, संतान का अभाव हो, रोग हो, शोक हो अथवा जन्म से लेकर मृत्यु तक कोई संस्कार हो, मांगलिक अनुष्ठान हो। व्रत, उपवास, तीर्थ, यज्ञ, श्राद्ध, दिन, तिथि, महीना और ॠतु, पर्व और त्यौहार-प्रत्येक अवसर का एक विाष्टि विधि-विधान है और प्रत्येक विधि-विधान के साथ लोकमानस की इच्छा, आकांक्षा और कामनाएँ अनुस्यूत हैं। प्रत्येक अनुष्ठान की कुछ विाष्टि रहस्यात्मक क्रियाएँ हैं। प्रत्येक अनुष्ठान का कोई न कोई देवता है और विशिष्ट सामग्री है।

लोकानुष्ठानों में वृक्ष-वनस्पति का अध्ययन करने के लिए इन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है

१. देवतत्त्व के रुप में
२. आनुष्ठानिक सामग्री के रुप में

१. देवतत्त्व के रुप में
वृक्ष-वनस्पतियों को आदि-देव कहा जा सकता है। लोक अनुष्ठानों में अनेक वृक्ष-वनस्पितयों को देवतत्त्व रुप में ग्रहण किया जाता है। इन्हें हम तीन भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं-


१.१ देवरुप
१.२. देव प्रतीक रुप
१.३. देव निवास रुप



लोकअनुष्ठानों के वृक्ष वनस्पति का वर्गीकरण

१.१. देव रुप

जो वृक्ष-वनस्पति प्रत्यक्ष देवरुप में स्वीकार किए गए हैं, उनके भी तीन वर्ग किए जा सकते हैं-

१.१.१. नित्य पूज्य
१.१.२. तिथि वासरीय
१.१.३. निमित्त पूज्य


१.१.१. नित्य पूज्य : ब्रज क्षेत्र में तुलसी गणना नित्यपूज्य वृक्ष-देव के रुप में की जा सकती है, क्योंकि वह हरिप्रिया-१ है। सम्पूर्ण मंगलों का निमित्त और अमंगलों का निवारण करनेवाली है। जहाँ तुलसी का बिरवा रहता है, वहाँ यमदूत तथा दुष्ठ शक्तियाँ प्रवे श नहीं करतीं। कहीं-कहीं पीपल की पूजा भी नित्यप्रति की जाती है।

१.१.२. तिथि वासरीय : अनेक वृक्ष देवता ऐसे हैं, जिनकी पूजा विशिष्ट तिथि और वार को होती है। जैसे अक्षय वनमी पर आँवले की पूजा, दूबरी सातें को दूब की पूजा, अकौआ-छट को आक की पूजा होती है। बृहस्पतिवार को केला तथा शनिवार को पीपल की पूजा होती है।

१.१.३. निमित्त पूज्य : लोकजीवन के निमित्त भी दो प्रकार के हैं-मंगलनिमित्त और अमंगल का निवारण। मंगल निमित्त भी संतान, सम्पत्ति और सौभाग्य हेतु तीन प्रकार के होते हैं। 'आोक' की पूजा संतान की कामना से की जाती है, छोंकर का वृक्ष विजय दिलानेवाला है और लंका-विजय से पूर्व राम ने भी इसकी पूजा की थी।-२ वट-वृक्ष सौभाग्य का देवता है, वटसावित्री-कथा में सावित्री ने यम के विधान को बदलकर सत्यवान के लिए नया जीवन प्राप्त किया था।  अमंगल-निवारण के लिए बड़ी-बूढ़ी स्रियाँ, स्याने, तांत्रिक या पंडित पीपल, आक आदि की पूजा का नि श् ा देते हैं। जैसे-स्वप्न में साँप दिखाई दे तो शनिवार को पीपल पर दूध चढ़ाना चाहिए।

१.२. देव प्रतीक रुप

देव प्रतीक के रुप में सुपाड़ी, हल्दी की गाँठ तथा नारियल की पूजा की जाती है।

१.३. देव निवास रुप

अनेक वृक्ष-वनस्पतियों के मूल और शाखाओं पर देवताओं का निवास माना जाता है। ये देव भी तीन प्रकार के हैं-


१. ३.१. देवता रुप
१.३.२. प्रेत रुप
१.३.३. पितृश्वर रुप

१.३.१. देवता रुप : केला के मूल में विष्णु का निवास है। यदि शमी वृक्ष पर पीपल उग आए तो वह नर-नारायण का रुप है। नीम पर भैरव का निवास है। आोक पर कामदेव का निवास है।

१.३.२. प्रेत रुप : गूलर, बाँस, बेरिया, पीपल प्रेत के निवास-स्थान माने जाते हैं।

१.३.३. पितृश्वर रुप : पूर्वज वृक्ष के नीचे निवास करते थे या उठते-बेठते थे। पूर्वज-संबंध सूत्र के कारण के वृक्ष भी पूर्वजों के समान पूज्य माने जाते हैं। वृक्षों के नीचे थान बनाए जाते हैं, जहाँ पूर्वज देवता या पितृश्वर देवताओं की (देवताबाबा के रुप में) पूजा की जाती है।

देवतत्त्व के रुप में तुलसी, पीपल, वट, दूब, अ शोक, गूलर, छोंकर, आँवला, अंडी, आक, केला, नीम, कदंब, बेल, कमल का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है-

(अ) तुलसी : ब्रजमंडल में प्राय: घरों में 'तुलसी' का 'थामरा' होता है। स्रियाँ श्रद्धापूर्वक उस पर जल चढ़ाती हैं तथा दीपक जलाती हैं। तुलसी की पूजा का विोष अनुष्ठान कार्तिक के महीने में होता है। 'कार्तिक स्नान' करके स्रियाँ 'राई दामोदर' की पूजा करती हैं तथा तुलसी के पौधे को बीच में रखकर कथा-कहानी सुनाती हैं।-३ तुलसी के विवाह तथा गौने (द्विरागमन) के गीत गाए जाते हैं-

'हो राम डूँगर खटकी में सुनी और नद जमना के तीर' इस गीत में कहानी है कि जब तुलसी सिर पर गागर लेकर यमुना-किनारे गई, तो 'रुक्मणी' ने तुलसी को पकड़कर हिला दिया और उसके जेवर तथा चूड़ियाँ तोड़ डालीं, गागर लुढ़का दी और तुलसी के पिता को गालियाँ दी। श्रीकृष्ण आए और उन्होंने पूछा कि-'तुलसी, आज तुस इतनी अनमनी क्यों हो ?' तुलसी ने कहा-'हे कृष्ण, तुमरी रुकमिन लाड़ली और हम डारीं झकझोर।' कृष्ण बोले-'तुलसी, मेरी सबसे प्रिय तो तुम्हीं हो और तुम्हें मैं हृदय में धारण करता हूँ।'-४ स्मरणीय है कि ' शालिग्राम' की पूजा तुलसीदल से होती है। शालिग्राम शिला पर एक सौ आठ तुलसीदल चढ़ाने का अनुष्ठान किया जाता है।

एक अन्य गीत में 'राधा' और तुलसी के सपत्नी-भाव की चर्चा है, जिसमें एक धोबी कृष्ण और तुलसी के प्रेम के रहस्य को प्रकट कर देता है। राधा श्रीकृष्ण से उनके माथे पर तिलक, मेहँदी का पत्ता, पैरों में महावर तथा दुपट्टा में लगे दाग का रहस्य पूछती है। कृष्ण सभी बातों का उत्तर देकर कहते हैं कि दुपट्टा धोबी के यहाँ बदल गया। राधा धोबी को बुलाकर पूछती है, तो धोबी कृष्ण और तुलसी के प्रेम-प्रसंग को प्रकट कर देता है।-५

एक कथा के अनुसार वृन्दा ने कृष्ण की तपस्या करके वरदान माँगा था कि 'मैं तुम्हारी लीला के लिए निकुंज बनाऊँगी, उस उपवन में छ: ॠतुएँ एकसाथ रहेंगी, तुम उस निकुंज में राधा के साथ बिहार करना।' ये ही वृंदावन की निकुंजें हैं।

कार्तिक मास में 'देवठान-एकाद शी' को तुलसी-ाालिग्राम के विवाह का अनुष्ठान किया जाता है। उसमें गीत गाया जाता है-

आसाढ़े उजियारी तीजा लै रे बोवउ रानी तुलसी के बीजा ।
जोतहु बोवहु करहु कियारियाँ धनि जा मलिया के बेटाहू जायौ
तुलसी कौ बिरवा सींच जमायौ।
सावन तुलसा पात-दुपाती, भादों तुलसा गहर गँभीरी
क्वार में तुलसा कान कुँवारी कातिक तुलसा कौ रचौ विवाहु।

इस गीत में तुलसी की माँ धरती और पिता इंद्र बताए गए हैं।
तुलसी की आरती का गीत है-

तुलसा की मंजरि तोरि श्रीकृष्ण चढ़ाइयौ ।
श्रीकृष्ण चढ़ाइ परमपद पाइयौ ।
कुसुमी चीर पहराय तुलसीदे कों व्याहिये ।

एक पुराकथा के अनुसार 'वृंदा' शंखचूड़ असुर की पतिव्रता पत्नी थी, जिसकी वजह से वह अजेय था। उसका सतीत्व खंडित करने के लिए श्रीहरि ने शंखचूड़ दानव का रुप धारण किया और उसके पतिव्रत को भंग किया। तब वृंदा ने श्रीहरि को शालिग्राम शिला होने का शाप दिया और शिव ने वृंदा को जड़ (वनस्पति) होने का शाप दिया।-६

एक अन्य पुराकथा के अनुसार 'तुलसी' 'जालंधर' दैत्य की पत्नी तथा 'कालनेमि' की पुत्री थी। जालंधर की मृत्यु के पचात् इसने अग्नि-प्रवे श किया था। इसकी पति-भक्ति से 'विष्णु' प्रसन्न हुए। इसके अग्नि-प्रव श्ेा के स्थान पर 'गौरी' के अ श्ंा से आँवला, 'लक्ष्मी' के अं श से तुलसी तथा 'स्वरा' के अं श से मालती के पेड़ उत्पन्न हो गए।-७ पंजाब में जालंधर में तुलसी का प्रसिद्ध मंदिर है।

पुराणों में तुलसी को वृंदा के पसीने से उत्पन्न बताया गया है,-८ एक कथा के अनुसार 'समुद्रमंथन'के अवसर पर जब अमृत बाहर आया तो उसकी बूँद जमीन पर गिरी। उस बूँद से तुलसी का पेड़ उत्पन्न हुआ, जो 'ब्रह्मा' ने 'विष्णु' को दिया।-९ तुलसी का भगवान के चरणों में निवास है, लक्ष्मी का भी निवास भगवान के चरणों में है, इसलिए तुलसी को 'लक्ष्मी' की सौत मान गया है।

ब्रज में जब 'ठाकुरजी' को भोग समर्पित किया जाता है तब भोग में तुलसी-दल डाला जाता है, क्योंकि उसे बिना वे भोग स्वीकार नहीं करते-

छप्पन भोग छतीसौ व्यंजन बिन तुलसा हरि एक न मानी
नमो-नमो। तुलसा महारानी नमो-नमो

'चरणामृत' में भी तुलसीदल होता है। विवाहों में तेल चढ़ाया जाता है, 'तेल चढ़ाने' के समय गीत गाया जाता है-

ए हरि नवन सँजोय तुलसा पलोटै हरि के पाँय हो।

कार्तिक में कही जानेवाली तुलसी की एक कहानी है कि 'एक घर में ननद-भावज थीं। कुँआरी ननद तुलसी की पूजा करती थी, जब ननद का विवाह हुआ तो भाभी ने बरातियों के आगे गमला तोड़कर डाल दिया, जो पकवान के रुप में बदल गया, तुलसी की मंजरी गहना बन गई ।-१०

'रामचरितमानस' में प्रसंग है कि 'लंकापुरी' में 'विभीषण' के घर पर हनुमान ने तुलसी के पौधे देखे और अनुमान किया कि अवय ही यहाँ किसी भक्त का निवास है-

नव तुलसी के वृंद बहु लखि हरसे कपिराय ।

वैष्णव लोग तुलसी की कंठी पहनते हैं तथा तुलसी की माला पर ही जप करते हैं। मृत्यु के समय मुख में गंगाजल और तुलसीदल जाला जाता है और विश्वास किया जाता है कि ऐसा करने से 'बैकुंठ लोक' प्राप्त होता है।-११

(आ) पीपल : पीपल वृक्ष का उल्लेख वैदिक-साहित्य में है।-१२ गीता में श्रीकृष्ण ने पीपल को अपना ही प्रतिरुप बताया है-१३ तथा लोकजीवन में उसे विष्णु-नारायण एवं वासुदेव-वृक्ष माना जाता है। पीपल सतयुग का वृक्ष है। भगवती 'जालपा देवी' के भवन के द्वार पर पीपल और 'पिछवारे' वट का वृक्ष है।

पीपल वृक्ष पर शनि, नाग देवता, पीर, लक्ष्मी, भूत-प्रेत तथा पितृश्वर देवताओं का निवास माना जता है। शनिवार तथा 'अमावस्या' को संतान की कामना तथा 'ग्रहदोष' एवं 'अनिष्ट-निवारण' के लिए पीपल की पूजा की जाती है। गाँवों में प्राय: पीपल के नीचे छोटे-छोटे पत्थर रखे होते हैं, यह वास्तव में 'चैत्य-पूजा' की परंपरा का रुप है। भैंस अथवा गाय के 'ब्याने' पर (बच्चा होने पर) एवं नई फसल आने पर सबसे पहले देवपूजा का भाग पीपल के 'चैत्य' पर चढ़ाया जाता है।

एक लोक कहानी है कि एक लड़की पीपल को जल चढ़ाने जाया करती थी तो 'लक्ष्मी' उसके पीछे जाकर उसके घर का सारा काम कर दिया करती थी।-१४ लोकमानस में पीपल को शनि के रुप में पूजा जाता है। ब्रज की एक लोककथा में एक महिला पीपल से 'गोद भरने' की याचना करती है-

पीपर देउ सनीचर देउ मेरी गोद में लरका देउ

पीपल के प्रसाद से जब ननद के भी लड़का हुआ तो भाभी न पति से शंका की। भाई को भी विश्वास नहीं हुआ, तब पीपल का तना फटा और बालक उसमें समा गया। इस दुर्भाव के कारण भाई को 'कुष्ठ' हो गया तब वह पुन: पीपल से 'सत' के भांजे को माँगने गया।-१५ इस कहानी में पीपल गोत्र का महत्त्वपूर्ण संकेत है। 'सासनी' के पास 'बिजाहरी' गाँव के जाटव बिरादरी के एक महानुभाव ने पीपल 'गोत्र' का उल्लेख किया था।-१६

जब 'मुगल' देवी के 'मढ़' के द्वार पर स्थित 'हरियल पीपर' काटने को उद्यत हुआ-'हरियल पीपर ग्वाइ कटवाय दउँ तब मानैं मन मेरौ' तब लाँगुरिया ने उसे सावधान किया। पीपल काटने के कारण 'मुगल' नष्ट हो गया। पीपल की लकड़ी जलाने का दोष माना जाता है, विश्वास किया जाता है कि पीपल काटने से कोढ़े हो जाता है।

लक्ष्मी, शनि तथा देवी के अतिरिक्त 'पितृपूजा' में भी पीपल का महत्त्व है। 'पितृश्वरों' को तृप्त करने के निमित्त मृत्यु के बाद दस दिनों तक एक जल से भरा घड़ा पीपल पर टाँग दिया जाता है।-१७ प्रेत अपनी मुक्ति के लिए स्वप्न देता है कि मेरी मुक्ति के लिए पीपल का वृक्ष लगवाओ।

यदि छोंकर ( शमी वृक्ष) पर पीपल का वृक्ष उत्पन्न हो जाता है तो उसे 'नर-नारायण' का वृक्ष कहते हैं।-१८ उसी वृक्ष की सूखी लकड़ी से यज्ञ में 'अरणि-मंथन' (लकड़ी के घर्षण से अग्नि की चिनगारी उत्पन्न होती है, उससे यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित की जाती है) करने का विधान है।

' नाग पूजा' का दूध भी पीपल पर चढ़ाया जाता है। पुराणों में पीपल को विष्णु का रुप कहा गया है-


मूले विष्णु: स्थितो नित्यं स्कंधे केाव एव च।
नारायणस्तु शाखासु पत्रेषु भगवान् हरि:।
फलेऽच्युतो न सन्देह: सर्वदेवै: समन्वित:।
स एव विष्णुर्द्रुम:। - (स्कंद पुराण)

एक पुराकथा है कि शिव-पार्वती की रतिक्रीड़ा में अग्नि ने बाधा डाली तब पार्वती ने सभी देवताओं को वृक्ष बन जाने का शाप दिया, परिणामस्वरुप ब्रह्मा पीपल बने और विष्णु वट। एक कथा के अनुसार लक्ष्मी की बड़ी बहन 'दरिद्रा' एक बार रुठकर पीपल के नीचे जा बैठी। शनिवार के दिन लक्ष्मी उससे मिलने आयी, इसलिए शनिवार को तो पीपल लक्ष्मीप्रद होता है तथा अन्य दिनों उसका स्र्पा करने का निषेध है। भूत-प्रेत तथा दरिद्रा के निवास के कारण पीपल को गृहस्थ घर में रखने का निषेध है।

भगवान शिव पीपल के नीचे ध्यानमग्न रहते हैं। जब भगवान कृष्ण पीपल वृक्ष में बैठे थे, तभी उनके पैर में बहेलिया का बाण लगा था तथा उनका परमधाम गमन हुआ।-१९ गोस्वामी तुलसीदास के संबंध में किंवदंती है कि वे जिस पीपल पर पानी चढ़ाते थे, उसी के नीचे उन्हें हनुमानजी के द र्शन हुए। इस प्रकार के किस्से गाँव-गाँव में प्रचलित हैं कि-"गाँव के पच्छिम माँऊँ एक बम्बा पै कोठी ऐ, ग्वा पै कैऊ पीपर ठाड़े ऐं,
थान बन रए ऐं, म्वाँ ते पीर निकरतु ऐ।"-२०

पीपल को धर्म का द्वारा माना जाता है। शपथपूर्वक कहने के लिए पीपल की डाल पकड़कर सत्यनिष्ठा प्रकट की जाती है। गाँवों में पहले पंचायतें पीपल के नीचे की जाती थीं ताकि लोक झूठी गवाही न दें। ब्रज की अनेक जातियों में बालकों का 'मुंडन संस्कार' (मुड़ामन) पीपल के नीचे कराया जाता है।-२१

यदि किसी कन्या की कुण्डली 'मंगली दोष' अथवा अन्य कोई अनिष्ट दोष होता है तो उसके निवारण हेतु उस कन्या के 'फेरे' पहले पीपल के साथ डालने के बाद फिर विवाह की विधि सम्पन्न करायी जाती है।

जिस प्रकार शालिग्राम-तुलसी के विवाह का अनुष्ठान कराया जाता है उसी प्रकार पीपल का जोड़े से अथवा नीम के साथ विवाह-अनुष्ठान भी कराया जाता है। लोकगीतों में पीपल-पूजा का अभिप्राय बहुप्रचलित है-

पीपर पूजन हम चलीं बाँयें बोलौ काग।
पीपर पूजत पिय मिलें एक पंथ दो काज।

(इ) वट : वट-वृक्ष भी पीपल के समान ही नारायण विष्णु का स्वरुप माना गया है। इसी वृक्ष के नीचे 'सावित्री' ने मृत्यु को जीतकर 'सत्यवान' का पुनर्जीवन प्राप्त किया था। ज्येष्ठ मास की अमावस्या (बड़मावस अथवा सावित्री व्रत) को दीवाल पर हल्दी-चावल के 'ऐंपन' से बड़ का चित्र बनाकर अथवा उसकी टहनी लाकर सौभाग्यवती स्रियाँ सुहाग की कामना से बड़ की पूजा करती हैं तथा बड़-वृक्ष उपलब्ध हो जाए तो वहाँ पौनी (कच्चा सूत) लपेटकर एक सौ आठ परिक्रमा करती हैं। पुराणों में शिव का आसन वट-वृक्ष के नीचे उल्लिखित है। पुराण प्रसिद्ध 'मार्कण्डेय मुनि' ने जो प्रलय-र्दान किया था, उसमें 'प्रलयकाल' में केवल 'अक्षयवट' शेष था और सर्वत्र जल ही जल था। वट-वृक्ष के पत्ते पर 'बालमुकुंद' शयन कर रहे थे।-२२

ब्रज में कहावत है कि-

वृंदावन सौ बन नहीं, नंद गाँव सौ गाँव।
वं शीवट सौ वट नहीं, कृष्ण नाम सौ नाम।

इसी व श्ंाीवट के नीचे श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास किया था। भागवत-पुराण के व्याख्याकारों ने 'रास' के अभिप्राय की विस्तार से व्याख्या की है तथा 'विराट पुरुष', 'श्रीयंत्र' जैसे अभिप्रायों की भाँति अध्यात्म-विद्या के रुप में रास का विवेचन किया है। वट का अभिप्राय ' शास्र' में किस रुप में प्रतिष्ठित है, इसका एक उदाहरण वं शीवट तथा दूसरा उदाहरण 'अक्षयवट' है। भगवान बुद्ध के जीवन-प्रसंग में सुजाता की दासी ने गौतम बुद्ध को वृक्ष का देवता यक्ष समझकर खीर समर्पित की थी। ब्रज के 'भांडीर वन' में भांडीर यज्ञ का 'भांडीर वट' प्रसिद्ध है।
'करवा चौथ' के व्रत में दीवाल पर वट का अभिप्राय अंकित किया जाता है, क्योंकि सात भाइयों ने 'अखैबर' के पेड़ पर चढ़कर ही दीपक दिखाया था। विष्णुसह शनाम में 'न्यग्रोधोदुंबरऽावत्थ:'। वट, पीपल तथा गूलर विष्णु के स्वरुप हैं। भागवत में वट को 'महायोगमय तथा मुमुक्षुओं का आश्रयभूत' कहा गया है। (४.६.३३)। इस प्रकार ' शास्र' और 'लोक' दोनों में वट की महिमा प्राचीन का से प्रतिष्ठित है।

(ई) दूब : श्रावण शुक्ला सप्तमी को 'दूर्वा-सप्तमी' या 'दूबरी सातें' कहा जाता है। 'दूबरी सातें' की कहानी में उल्लेख है कि 'दूबरी सातें' के दिना सबु बैयरबानी जुर मिल में दूब लैबे जाओ करतीं।'-२३ दूब को देवी का रुप माना गया है तथा इसकी पूजा से सुख-सम्पत्ति-संतान की प्राप्ति होती है। दूब गणे श को प्रिय है तथा गणे शजी की पूजा में दूब का होना अत्यंत आव श् यक माना जाता है। भविष्य पुराण की कथा है कि-"जब देवताओं ने 'क्षीरसागर-मंथन' किया, उस समय विष्णु भगवान ने अपनी पीठ पर 'मंदराचल' को धारण किया, उसकी रगड़ से भगवान के जो रोम उखड़कर जल में गिरे, उनसे दूब उत्पन्न हुई, उस दूब पर देवताओं ने 'अमृत के कुंभ' रखे, उस अमृत के स्र्पा से यह अजर-अमर हो गयी।" ब्रज की एक लोक कहानी है कि कौआ 'अमरौती' लेकर आया तो उसने दूब-घास पर रखकर ही अमरौती खायी थी। दूब को अजर-अमर माना गया है। दूब कितनी ही सूख जाए, एक बूँद जल से ही हरी हो जाती है। दूब उर्वरता की प्रतीक है तथा पुत्र-जन्म के उत्सव में 'नाई' परिजनों के कान पर दूब लगाकर दक्षिणा लेता है।

(उ) अ शोक : 'अ शोक' कामदेव का प्रतीक है। विवाह आदि अवसरों पर अ शोक के पत्तों का बंदनवार बाँधा जाता है। कामदेव के हाथस में अ शोक का बाण है। संतान की कामना से स्रियाँ चैत्र शुक्ल अष्टमी को इसकी पूजा करती हैं तथा इसकी आठ पत्ती खाकर विश्वास किया जाता है कि उसके पुत्र उत्पन्न होगा। रावण की लंका में अ शोक वाटिका थी और 'सीता' को अ शोक वाटिका में रखा गया था। वे अ शोक वृक्ष के नीचे बैठती थीं-'सुनहु विनय मम विटप 'आोका'।' किंवदंती है कि अ शोक का फूल सुंदरी के पदाघात से फूलता है। इस अभिप्राय से युक्त प्राचीन प्रतिमाएँ 'पुरा-संग्रहालय' में विद्यमान हैं।

(ऊ) गूलर : 'गूलर' को 'विष्णुसह"ानाम' में विष्णु का रुप माना गया है। गूलर को 'व्रण वृक्ष' माना गया है। भगवान नृसिंह ने अपने नखों की गरमी को (क्रोध के ताप को) गूलर के वृक्ष में गाड़कर शांत किया था, इसलिए इसका फल विरस हो गया तथा 'व्रण' के रुप में कीड़े भी उत्पन्न हो गए। गूलर के नीचे सैयद का थान होता है-'गूलरिया धुकधालरी म्वाँ सैयद कौ थान।'

(ए) शमी (छोंकरा) : दाहरा (आश्विन) के दिन स्रियाँ शमी (छोंकरा के पेड़) की पूजा करती हैं। यज्ञ में 'अरणिमंथन' के लिए इसी की लकड़ी ली जाती है। विवाहों में 'वरमनियाँ' को 'बव्रावाहन' (बर्बरीक) का रुप माना जाता है। लोक-कथा है कि श्रीकृष्ण ने बव्रावाहन को यह वरदान दिया था कि तेरी पूजा छोंकर के वृक्ष पर होगी।-२४

(ऐ) आँवला : आँवले के वृक्ष पर देवताओं और ब्रह्माजी का निवास माना जाता है। पुराकथा के अनुसार यह गौरी के तेज से उत्पन्न होनेवाला वृक्ष है। अखयनवमी (कार्तिक शु. नवमी) के दिन कुमारियाँ घी-गुड़ से इसकी पूजा करती हैं तथा कच्चे सूत के साथ परिक्रमा करती हैं। इतवार के दिन आँवले का नाम लेना निषिद्ध है।-२५

(ओ) अंडी (एरंड) : गाँवों में बसंत पंचमी के दिन होरी का 'डाँड़ा' गढ़ता है। लक्कड़ों के बीच में 'अंडी' के पेड़ के लगा देते हैं। जब होली जलाई जाती है, तब इसे निकाल लिया जाता है, यह प्रह्मलाद का प्रतिरुप माना गया है।

(औ) आक : श्रावण शुक्ल षष्ठी को 'अकौआ छट' कहा जाता है। इस दिन आरोग्य-कामना से सूर्य के नामों से आक की पूजा की जाती है। यह स्वर्ग का वृक्ष माना जाता है। जब कोई तीसरा विवाह करता है, तो पहले उसका विवाह आक से होता है। इसका नाम मंदार भी है।


(अं) केला : बृहस्पतिवार को स्रियाँ सौभाग्य-कामना से गुड़ और चने की दाल से केले की पूजा करती हैं तथा कच्चा सूत लपेटकर परिक्रमा करती हैं।

(अ:) नीम : नीम के पेड़ पर भैरव का निवास माना जाता है। विश्वास किया जाता है कि स्नान करके नीम पर जल चढ़ाने से दुख-दरिद्रता दूर हो जाती है। यह शीतला माता का प्रिय वृक्ष है।

(क) कदंब : कंदब वृक्ष एक ओर कृष्ण-लीला के संदर्भ से जुड़ा है-'बैठो कदम की डारी कदम बिच बनवारी', 'कालिंदी कूल कदंब की डारन', 'कदम चढ़ कान्ह बुलावत गइयाँ'। 'टेर कदम्ब' प्रसिद्ध है। दूसरी ओर भगवती जगदंबा भी कदंबवन-वासिनी हैं। भगवती का चिंतामणिगृह कदंबों से घिरा है-मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिंतामणिगृहे।-२६ कंदब वृक्ष विश्व वृक्ष है तथा इस पर लोहितायनि (कार्तिकेय की धाय) की पूजा होती है।

(ख) बेल : बेल का वृक्ष शंकर को भी प्रिय है और लक्ष्मी को भी। ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ज्येष्ठा नक्षत्र में सरसों मिले जल से इसकी पूजा होती है, माना जाता है कि जो इस प्रकार पूजा करे, वह स्री विधवा नहीं होती। 'बेल वृक्ष' की पूजा करने से धन और पुत्र की भी प्राप्ति होती है। इसकी तीन पत्तियाँ मिली हुई होती हैं, इन्हें बेलपत्र (बेल पत्थर भी) कहते हैं और शिव की पूजा में बेलपत्र का महत्त्व उसी प्रकार का है; जैसे- शालिग्राम पूजा में तुलसीदल का। एक कथा है कि एक भील बेल पर चढ़ उसके पत्र तोड़-तोड़कर गिरा रहा था, नीचे शिवलिंग था। भगवान शंकर इस कृत्य से भील पर प्रसन्न हो गए।-२७

(ग) कमल : भारतीय संस्कृति में कमल सृष्टि का प्रतीक है। ब्रह्मा की उत्पत्ति कमल से मानी गयी है। यह कमल विष्णु का नाभि से उत्पन्न हुआ था। लक्ष्मी का नाम कमला है, उसका निवास कमल-वन में है, उनका आसन भी कमल है, उनके हाथ में कमल का ही आयुध है। लक्ष्मी को पद्मा, पद्मायताक्षी, पद्महस्ता, पद्मप्रिया, पद्मसंभवा कहा गया है।-२८ विष्णु के हाथ में भी पद्म है और चरणों में भी पद्मचिन्ह हैं। भगवती सरस्वती 'श्वेत पद्मासना' हैं। राधा के हाथों में भी लीला-कमल है। महाभारत (वन. १५४/२०.२१) में प्रसंग है कि कुबेर के पास सौगंधिक कमलों का सरोवर था और भीम कमल लेने गए थे। योग शास्र में षट्चक्रों की परिकल्पना कमलों के रुप में की गयी है।

नित्य-वृंदावन कमल पर ही बसा हुआ है, ऐसा विश्वास प्रचलित है-'अधर कमल बिंदावन बसि रह्यौ।'

(घ) वृंदावन के वृक्ष : वृंदावन के लता-पता और वृक्षों को ॠषि-मुनि माना जाता है। भागवत में उल्लेख है कि स्वयं उद्धव ने वृंदावन की गुल्म लतौषधि बनने की कामना की थी।

ब्रज की लता-पता मोहि कीजै।
आसामहोचरण रेणुजुषामहं स्याम
वृंदावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।

रसिक भक्त इन लताओं को 'सखी' रुप मानते हैं, जो यामा-याम के लीला विहार की सहायक एवं साक्षी हैं। वृंदावन के भक्त ब्रजलताओं के साथ निवास को अपने जीवन का सौभाग्य मानते हैं।

बास करै ब्रज लतन सँग माँग मधुकरी खाँय।
वृंदावन के वृक्षों की महिमा संबंधी कहावत है-

वृंदावन के बिरछ कौ मरम न जानें कोय।
डार-डार अरु पात-पात पै राधे-राधे होय।

(ङ्) रुद्राक्ष : एकमुखी 'रुद्राक्ष' को गौरी शंकर कहते हैं। रुद्राक्ष के दाने पर शिव की पूजा होती है। पुराणों में रुद्राक्ष की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। रुद्राक्ष धारण करने से सौभाग्य प्राप्त होता है।

शिव पर केतकी का फूल नहीं चढ़ाया जाता क्योंकि एक कथा के अनुसार 'शिवलिंग' का आदि और अंत ब्रह्मा ने खोज लिया है' ऐसी झूठी गवाही देने के कारण केतकी को यह शाप दिया गया था।

(च) बाँस : भगावत-माहात्म्य के प्रसंग में गोकर्ण का भाई 'धुंधकारी' प्रेत बना और उसने सात गाँठों के बाँस में प्रवेा करके भागवत सप्ताह सुना था।-३० भागवत सप्ताह के आयोजन में एक बाँस प्रतिष्ठित किया जाता है।

(छ) कल्पवृक्ष : देववृक्ष : गायों में जो स्थान सुरभि नामक गौ का है, वृक्षों में वैसा ही स्थान पारिजात अथवा कल्पवृक्ष का है। 'सुरभि' स्वर्ग की गाय है तथा उसे कामधेनु कहा जाता है, पारिजात उसी प्रकार स्वर्ग का वृक्ष है। जिस प्रकार कामधेनु सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है, उसी प्रकार कल्पवृक्ष भी सम्पूर्ण इच्छाओं को पूरा करनेवाला तथा समस्त अभावों को दूर करनेवाला है। पुराकथाओं की भाँति ही लोक कहानियों में भी इसका प्रसंग आता है और जहाँ भी इसका प्रसंग आता है वहाँ पर अभिप्राय जुड़ा रहता है कि किसी व्यक्ति ने कल्पवृक्ष के नीचे जो संकल्प किया, जो इच्छा की, वह पूर्ण हो गयी। भगवान् को 'वांछा कल्पतरु' कहा गया है तथा जगदंबा को 'कल्पलता' नाम से भी अनेक ग्रंथ रचे गए हैं, स्तोत्र ग्रंथ उपलब्ध होते हैं तथा 'कल्पद्रुम' नाम से भी अनेक ग्रंथ रचे गए हैं, जैसे- शब्दकल्पद्रुम, काव्यकल्पद्रुम आदि। 'कल्पवृक्ष' उन 'चौदह रत्नों' में से एक है, जो समुद्र-मंथन के माध्यम से प्रकट हुआ था। 'पारिजात वृक्ष' नंदन वन में था और इस वृक्ष को स्वर्ग से द्वारका में लाने के लिए कृष्ण का इंद्र से युद्ध हुआ था और कृष्ण ने इंद्र को परास्त किया था। कृष्ण के परमधाम गमन के बाद इंद्र इस पुन: स्वर्ग ले गया, ऐसा उल्लेख भी पुराकथाओं में विद्यमान है।-३१

मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने 'पद्मावत' में 'कंचनवृक्ष' का वर्णन किया है, यह वर्णन बहुत कुछ कल्पवृक्ष की परिकल्पना से मिलता-जुलता है-

और कुंड एक मोंती चूरु, पानी अंब्रित कीच कपूरु।
ओहिक पानी राजा पैं पिया, बिरिध होइ नहिं जो लहि जिया।
कंचन बिरिख एक तेहि पासा, जस कल्पतरु इंद्र का विलासा।
मूल पताल सरग ओहि साखा, अमर बेल पाव को चाखा।
चाँद पात औ फूल तुराई, होइ उजियार नगर जहँ ताई।
वह फर पावै ताप कें कोई, बिरिध खाय नव जोबन होई।
राजा भये भिखारी सुनि वह अंब्रित भोग।
जेहि पावा सो अमर भा न किहु व्याधि न रोग
महात्रिपुर सुंदरी के मणिद्वीप की परिकल्पना में कल्पवृक्षों के वन हैं-

सुधासिंधोर्मध्ये सुरविटपवाटी परिवृते।-३२

कल्पवृक्ष का विश्वास 'वृक्ष में परिपूर्णता-सम्पूर्णता' का विश्वास है। अनेक साहित्य-मनिष्यों ने मन तो ही कल्पवृक्ष कहा है।

(ज) वृक्ष-पूजा : विधि-विधान : वृक्ष-पूजा के विधि-विधानों में कर्मकांड के प्राचीन अव शेष विद्यमान हैं। सूत लपेटना, परिक्रमा करना, जल चढ़ाना, दीपक जलाना, कथा-कहानी कहना, गीता गाना, दान करना, व्रत-उपवास रखना, चित्र लिखना-३३ तथा उद्यापन करना वृक्षपूजा के विधि-विधान हैं। साँझी-टेसू के अनुष्ठान जिस प्रकार खेल के रुप में आयोजित होते हैं, उसी प्रकार कजली खेलना जौ-बोने संबंधी अनुष्ठान है। पूजा-अनुष्ठान के साथ खेल का तत्त्व किसी प्राचीन परंपरा का संकेत करता है। केला, पीपल और तुलसी की पूजा में कथा-कहानी सुनने-सुनाने का विोष महत्त्व है। तुलसी के पूजन में गीत भी गाए जाते हैं और भिन्न-भिन्न अंचलों में भिन्न-भिन्न प्रकार के तुलसी के गीत प्रचलित हैं।-३४

(झ) टोटम (गणगोत्र) : आचार्य क्षितिमोहन सेन ने थस्र्टन द्वारा लिखित पुस्तक के आधार पर उल्लेख किया है कि अनेक जातियाँ अपनी उत्पत्ति वृक्षों से मानती हैं। इस प्रकार के टोटम वृक्षों (गणगोत्र से संबंध रखनेवाले वृक्षों) की संख्या एक सौ तक है। पीपल, गूलर, नीम, बेल, बरगद आदि की गणना भी इन वृक्षों में की गयी है।-३५ इस संदर्भ में सासनी के पास बिजाहरी गाँव में एक जाटव परिवार के पीपल गोत्र का उल्लेख यथा-प्रसंग किया जा चुका है।

(ञ) अध्यारोपण : कुछ वृक्षो-वनस्पतियों को किन्हीं प्राचीन 'व्यक्तित्वों' का प्रतिरुप माना जाता है। तुलसी कृष्ण की प्रेयसी है, साथ ही शंखचूड़ की पतिव्रता पत्नी और जलंधर की सती स्री भी वह है।

(ट) अंतर्भुक्ति : इतिहास में हम देखते हैं कि जब दो मानव जातियों का सम्मिलन होता है तो उन जातियों के देवतत्त्व और पूजातत्त्व भी एक-दूसरे में समा जाते हैं। तुलसी देवतत्त्व में वृंदा देवतत्त्व की अंतर्भुक्ति उदाहरण है। पुराणों में तुलसी और वृंदा दो भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व हैं, जिनका संबंध असुर और दानव-संस्कृति से है और वह दानव संस्कृति आज तुलसी की वैंष्णवी पूजा में इस प्रकार अंतर्भुक्त है कि उसे पहचानना ही कठिन है। होली का संबंध दैत्य संस्कृति से है। होली पर जो गीत गाए जाते हैं, उनमें राजा बलि का उल्लेख मिलता है 'राजा बलि के द्वारा मटी रे होरी।'-३६ होली पर अंडी का दंड जो प्रह्मलाद का प्रतिरुप माना जाता है, दैत्य संस्कृति का पूजा तत्त्व है, प्रह्मलाद दैत्य थे। इसी प्रकार अर्क पूजा का संबंध आदित्य से है। आक की पूजा सूर्य के नाम से की जाती है।

पीपल की पूजा में नाग देवतत्त्व तथा शनिग्रह देवतत्त्व अंतर्भुक्त हैं। लक्ष्मी देवतत्त्व का भी उसमें समावे श है। आगे चलकर हम पीपल के साथ नारायण एवं विष्णु को भी अंतर्भुक्त देखते हैं। गूलर विष्णु का रुप माना गया है परंतु गूलर के साथ प्रेत और पितृश्वर-देवतत्त्व अंतर्भुक्त होते हैं, सैयद पनमेसुरेका थान भी गूलर के नीचे मिल जाता है।

अंतर्भुक्ति की प्रक्रिया निरंतर प्रक्रिया है तथा जातीय जीवन के साथ उसका अभिन्न संबंध है। जातीय जीवन की घटनाएँ अंतर्भुक्ति की प्रक्रिया में परिलक्षित की जा सकती हैं। इसी प्रकार वृक्ष-वनस्पतियों से
संबंधित निषेधों का अध्ययन भी सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन में सहायक हो सकता है।

भूत-प्रेतों और आत्माओं का वर्गीकरण भी किया जा सकता है; जैसे 'पुरखा-पनमेसुरे', 'अऊत', 'पितर', 'भुमियाँ', 'भूत', 'प्रेत', 'जोगिनी', 'सती', 'सैयद', 'पीर', 'जिन्न', 'खईस' और 'चुड़ैल' आदि।

जिन्न, बेर पर रहता है। खईस केवड़ा में रहता है, गूलर पर भी रहता है।

धुंधकारी का प्रेत बाँस में प्रतिष्ठित होकर भागवत-सप्ताह सुनता था। 'हरदौल' का प्रेत 'महुआ' पर स्थित था। 'हरदौल' गाथा-३८ का एक प्रसंग है-

त्यारे बिरन द्वेै बिरछ लगाए एक महुआ एक आम।
आम मिली है रोय कें रे महुआ ऐ छाती फारि।
महुआ की फटि करिचें भई रे बैठे हैं गुंजलक मार।

सैयद का थान गूलर के नीचे होता है-

गूलरिया झुक झालरी म्वाँ सैयद कौ थान।

इस प्रकार का लोकविश्वास भी प्रचलित है कि मृत्यु के उपरांत आत्मा वृक्ष के रुप में भी जन्म ले लेती है।

बाबुल मरि महुआ भये और वीरन पीपर के पेड़।

(ड) प्राचीन जातियों की स्मृति : अनेक मानवाास्रियों तथा पुराविदों ने वृक्षपूजा की परंपरा तथा पौराणिक उल्लेखों के आधार पर प्राचीन जातियों और उनकी सांस्कृतिक परंपराओं की पहचान की है। प्राचीन काल में यक्ष और गंधर्व पेड़ों को आवास बनाकर रहते थे, इसलिए प्राचीन संस्कृत-साहित्य में वृक्षों का एक नाम यक्षावास भी आता है। याोदा के आँगन में दो अर्जुन (यमलार्जुन) वृक्ष थे। भागवत में उल्लेख है कि नल और कूबर नाम के यक्ष नारद के शाप से ग्रस्त होकर इन पेड़ों के रुप में उत्पन्न हुए थे।-३९ डॉ. नीलकंठ पुरुषोत्तम जो शी ने वटवृक्ष का यक्षों से संबंध रेखांकित किया है।-४० भांडीर यक्ष का भांडीरवन ब्रज की चौरासी कोसी परिक्रमा में तीर्थ के रुप में माना जाता है।

काम गंधर्व देवता था और आम, अ शोक, पलाा, ईख, कमल, कुमुद एवं दमनक कामदेव के सम्बद्ध माने जाते हैं। दमनक और अ शोक पर काम की पूजा होती है। आम, अ शोक, पला श, कुमुद और कमल की गणना कामदेव के बाणों के रुप में तथा ईख की गणना कामदेव के धनुष के रुप में की जाती है।

'हिकिंडब' नाम का राक्षस शाल वृक्ष पर रहता था।-४१ सिहोर का वृक्ष पि शाच-वृक्ष है। पीपल का संबंध नाग संस्कृति से है, क्योंकि नागपूजा का दूध पीपल पर चढ़ाया जाता है। 'तुलसी' या 'वृंदा' का संबंध कालनेमि दैत्य, असुर शंखचूड़ तथा दैत्य पौराणिक कथा के अनुसार पीपल और अश्वत्थ नामक असुर ब्राह्मणों का वध करते थे। इस प्रसंग में प्रख्यात विद्वान् आचार्य क्षितिमोहन सेन का विचार उल्लेखनीय है। वे कहते हैं-'वृक्षों की पूजा आर्यों ने आर्यपूर्व भारतीयों से ग्रहण की होगी।' उनका तर्क है कि 'जिन देवताओं से संबंद्ध माने जाकर तुलसी, पीपल, बिल्व आदि वृक्ष पवित्र माने गए हैं, उन देवताओं का आदिम परिचय वेद विरुद्ध देवता के रुप में मिलता है।'-४२

२. आनुष्ठानिक सामग्री के रुप में

अनेक वृक्ष-वनस्पतियों, फल-फूल पत्तियों का आनुष्ठानिक महत्त्व है। हल्दी, सुपाड़ी, अक्षत, लौंग, फूल, फल, चंदन, चना की दाल के बिना देवी की पूजा कैसे होगी? भाँग, धतूरा और बेलपत्र से ही तो भगवान शंकर प्रसन्न होंगे। आम, अ शोक, गूलर, पीपल और वट के पत्तों के बिना विवाह जैसे मांगलिक कार्य सम्पन्न नहीं हो सकते। आक, ढाक आदि कि समिधा आयेगी तभी तो यज्ञ होगा, जौ और तिल का चरु बनेगा, गोला के साथ पूर्णाहुति दी जाएगी। तिल से पितृश्वरों का तपंण होगा।

देवतत्त्व और आनुष्ठानिक सामग्री अविच्छिन्न है। शास्रीय विधि हो या लौकिक विधि हो, सभी जगह यज्ञ, पूजा और अनुष्ठान में काम आनेवाली सामग्री को अभिमंत्रित किया जाता है। देवता की पूजा से पहले शंख और घंटा की पूजा होती है। इसलिए इसमें संदेह नहीं कि आनुष्ठानिक सामग्री भी देव-रुप है। मांगलिक अवसरों पर पंच-पल्लव आनुष्ठानिक-सामग्री के अंतर्गत हैं पर ये पाँचों वृक्ष भिन्न प्रसंगों में देव-रुप हैं। वृक्ष देवतत्त्व के आनुष्ठानिक सामग्री के रुप में पर्यवसित होने की भी एक कहानी है, जिसे वृक्ष-पूजा के इतिहास के साथ कहा-सुना जा सकता है। आनुष्ठानिक सामग्री के रुप में वृक्ष-वनस्पतियों के निम्नलिखित चार संदर्भ वर्गीकृत किए जा सकते हैं-


२.१. पूजन संदर्भ
२.२. संस्कार संदर्भ
२.३. पर्व त्यौहार संदर्भ
२.४. अभिचार संदर्भ

२.१. पूजन संदर्भ

भिन्न-भिन्न देवताओं के पूजन में भिन्न-भिन्न फूल, पत्ते तथा अन्य आनुष्ठानिक सामग्री स्वीकार की जाती है।


२.१.१. देवी पूजा : भगवती की पूजा भाद्रपद मास में नीले कमल से, आश्विन में दुपहरिया के फूलों से तथा मार्ग शीर्ष में मालती के फूलों से की जाती है। कदंब, कमल, हरसिंगार, गुलाब, चमेली भगवती के प्रिय पुष्प हैं। भगवती को लोकगीतों में 'फूलन की लोभिनियाँ' कहा जाता है।  मैया रही है नंदनवन छाय फूलन की लोभिनियाँ ।

दुर्गा-पूजा में हरी-हरी मेहँदी, लौंग, पान, चने की 'कौमरी' या चने की दाल का विधान है।

२.१.२. शिवपूजा : शिव की पूजा में आक-धतूरे के फूल तथा बेलपत्र का वि शेष महत्त्व है। धतूरा, फल और भोग भी शिव को प्रिय है। देवता पर चंदन घिसकर चढ़या जाता है।

२.१.३. पितृश्वर एवं प्रेत : पितृश्वरों के लिए तिल, सवाँ, मूँग, उड़द और सफेद फूलों से पूजा जाता है। 'कूआवाला' नामक लोकदेवता की पूजा आक, धतूरे के फूल, चने की भीगी दाल तथा बिनौले से की जाती है। 'सैमद' पर सैमई-चावल चढ़ाए जाते हैं।

'पितरों' की तृप्ति हेतु जो श्राद्ध किए जाते हैं, उनमें उड़द से बननेवाले पदार्थ वि शेष रुप से सम्मिलित किए जाते हैं। काले उड़दों को सिंदूर से मिलाकर 'बलिदान' हेतु रखी गयी सामग्री में रखा जाता है। उड़द को मांस का प्रतीक बतलाया जाता है।

२.१.४. सामान्य पूजा-सामग्री : चावल, नारियल, हल्दी, रुद्राक्ष, कुा, तिल, तथा समिधा सामान्य रुप से प्रचलित पूजा-सामग्री हैं। इनके साथ अनेक सांस्कृतिक तत्त्व मिले हुए हैं, इस दृष्टि से यहाँ इनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।


(अ) चावल : चावल या अक्षत का आनुष्ठानिक महत्त्व है। विष्णु-पूजा में अक्षत चढ़ाने का उसी प्रकार निषेध है, जैसे शिवपूजा में केतकी का पुष्प निषिद्ध है। इसके अतिरिक्त ऐसी कोई पूजा या अनुष्ठान नहीं, जिसमें चावलों का महत्त्व न हो।

विवाह के अवसर पर जब वर और कन्या बैठते हैं तो कन्या वर पर अक्षत उछालती है और वर कन्या पर अक्षत उछालकर परस्पर एक-दूसरे का वरण करते हैं। 'वरमनियाँ' जिस पात्र में कन्यापक्ष के यहाँ जौ लाते हैं, कन्यापक्ष उस पात्र में चावल रखकर 'वरमनियाँ' को दे देता है। जब 'भामर' पड़ती है, तब सप्तपदी के समय कन्या का भाई उसमें से दो मुट्ठी खील वधू की 'अंजुलि' में भरता है। श्रीवर " शुवा से सूप एवं 'अंजुलि' के खीलों को घी से सिंचित करता है तथा वधू हवनाग्नि में उनकी आहुति कर देती है।

करवाचौथ पर खाँड़ के करवा में चावल रखकर उसे छिरका जाता है। विवाह के अवसर पर जहाँ चौक पर पटा बिछता है, वहाँ 'आखत' रखे जाते हैं। इसके साथ ही गणे श-कला की स्थापना भी आखतों पर होती है। 'भात' विवाह की एक महत्त्वपूर्ण र है, जिसमें कन्या का मामा (भातई) विवाह की मांगलिक सामग्री लेकर विवाह में सम्मिलित होता है तथा मान-पक्ष को सम्मानित करता है। प्रस्थान (यात्रा के लिए मुहूर्त का शकुन) की पोटली में भी चावल बँधे होते हैं।

(आ) नारियल : प्रत्येक मांगलिक अनुष्ठान में नारियल और गोला का महत्त्व है। भगवती पर ध्वजा-नारियल चढ़ाना बहुत शुभ माना गया है।

साधु, संत या ब्राह्मण मांगलिक अनुष्ठानों के बाद आँचल में नारियल का फल पुत्रोत्पत्ति के आ शीर्वाद की कामना से तथा अनुष्ठान की सफलता के रुप में प्रदान करते हैं।  'भाई दोज' पर भाई की अनुपस्थिति में बहनें गोला या नारियल पर तिलक करती हैं।

विवाह में नारियल का गीत गाया जाता है कि अरे नारियल तुझे कहाँ लगाऊँ? तुझे ससुरजी की सेज पर लगाऊँ अथवा सास की गोद में-

कहाँ लगाय आऊँ तोय, अहो नारियल के बिरवा
तोय लगाऊँ ससुरजी की सेजरिया
ससुर रानी की गोद अहो नारियल के बिरवा।


'पलकाचार' या 'गौने' के समय पति-पत्नि जिस पलंग पर बैठते हैं, पति उस पलंग के चारों 'पायों' के ऊपर गोला का स्प र्श कराके एक पाये पर गोले को फोड़ता है। यज्ञ और हवन में जो पूर्णाहुति दी जाती है, उसमें गोला में 'घृत' भरकर उसे अग्नि में 'स्वाहा' किया जाता है। 'साद फरेई' (पुंसवन संस्कार) में गर्भिणी अपने दोनों हाथों की उँगलियों में नारियल और उस पर आटे का बना चौमुख दीपक लेकर ऊपर अटारी से उतरती है एवं परिवार के मुखिया को समर्पित करती है।

नारियल को विश्वामित्र की सृष्टि माना जाता है।-४३ नारियल के खोपरे का आकार बंदर के मुँह जैसा होता है। नारियल को सिर का प्रतीक माना जाता है। कहानियों में ऐसा उल्लेख है कि भगवती जगदंबा ने 'जगद्देव' के धड़ पर नारियल रखा और वह जीवित हो गया।-४४ 'पूर्णकला' एक मांगलिक प्रतीक है। कला में तीर्थों का जल भरा जाता है, सर्वौषधि डाली जाती है, पंचपल्लव कला के मुख पर प्रतिष्ठित किए जाते हैं तथा उनके ऊपर नारियल को प्रतिष्ठित किया जाता है। नवरात्रों में कला-स्थापन किया जाता है तथा भगवती का प्रतिरुप मानकर इसकी पूजा की जाती है।

(इ) हल्दी : लोकजीवन के मांगलिक-प्रतीकों में हल्दी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हल्दी को घोलकर उसके छींटे लगाकर लड़कीवाले के यहाँ से 'पीरी चिट्ठी' भेजी जाती है, जिस पर विवाह की तिथि अंकित होती है। विवाह के अवसर पर 'हृदय हाथ' के नेग में हल्दी कूटी जाती है। तेल चढ़ाने की र में 'बर' या 'बरनी' के कान, घुटने और हाथों पर तेल लगाकर हल्दी मली जाती है। मंडप में लड़के के काका-मामा तथा वरपक्ष के पंडित की पीठ पर स्रियाँ हल्दी के थापे (हाथ के निाान) लगाती हैं। हल्दी चढ़ाने का गीत है-

ए मेरी हल्दीरा, हल्दी की लंबी चौड़ी गाँठ
लहर करेगौ लाड़न सूअना।

पुत्रजन्म के अवसर पर 'जच्चा' के माता-पिता के घर जब नाई के माध्यम से समाचार भेजा जाता है, तब समाचार की चिट्ठी में हल्दी की गाँठें भी रखी जाती हैं। इस अवसर का गीत 'रोचन' है-'हरद गहगही बहुत चहचही।'

माता की पूजा जिस चंदन से होती है, उसे 'ऐपन' कहते हैं। रात को चावल और हल्दी की गाँठ पानी में भिगोकर रख दी जाती है तथा सबेरे उसे बारीक पीस लेते हैं, यह ऐपन है। ऐपन से ही वरमावस के दिन वट देवता का भित्तिचित्र बनाया जाता है। नवरात्र में हल्दी के रंग से ही दीवाल पर त्रिकोणाकार चित्र काढ़कर देवी मैया 'धरी' जाती हैं। विवाह के अवसर पर हल्दी से स्वास्तिक भी काढ़ा जाता है तथा पूजा की थाली में दूब-हल्दी और धनियाँ के दाने रखे जाते हैं। लगन पत्रिका के ऊपर हल्दी का स्वास्तिक होता है तथा पत्रिका के अंदर भी 'हल्दी की गाँठ' होती है। पंडित लोग रोली के स्थान पर हल्दी भी चढ़वा देते हैं। जब किसी प्रसंग में 'थापे' धरे जाते हैं, वे प्राय: हल्दी से ही अंकित होते हैं। 'कन्या दान' के समय कन्या की माँ अथवा तत्सथानिक महिला हल्दी से कन्या के दोनों हाथ 'पहुँचों' तक पीले रँग देती है। 'कन्या के हाथ पीले करना' एक मुहावरा है, जिसका अर्थ है-विवाह करना।

(ई) रुद्राक्ष : माला : जिस प्रकार वैष्णव परंपरा में तुलसी की कंठी पहनी जाती है और तुलसी की माला पर जप किया जाता है, उसी प्रकार शाक्तों और शैवों की परंपरा में रुद्राक्ष का महत्त्व है। बगलामुखी देवी का जप हरिद्रा (हल्दी की गाँठ) की माला पर किया जाता है। सुख-सम्पन्नता के लिए रक्तचंदन की माला का विधान है तथा पुत्रोत्पत्ति की कामना से 'जीयापोता' की माला पर जप किया जाता है।

(उ) कु शा : कु शा को भगवान 'वाराह' की जटा बताया जाता है। 'मत्स्यपुराण' में उल्लेख है कि 'मधु दैत्य' के वध के समय भगवान विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुए पसीने की बूँदों से तिल, कुा और उड़द की उत्पत्ति हुई थी।-४५ कु शा को अत्यंत पवित्र माना गया है। 'सूर्याग्रहण' और 'चंद्रग्रहण' के दोष-निवारण-हेतु घर की वस्तुओं पर कु शा डाल दी जाती है। पितृकार्य में श्राद्धदेवी पर कु श बिछाए जाते हैं तथा पितृश्वरों को कु शा पर ही 'पिंड' तथा जल का 'तपंण' समर्पित किया जाता है।-४६ पितरों की पत्नियों के लिए भी कु शों पर ही अन्न प्रदान किया जाता है। कु श की ही 'पवित्री' (उँगलियों में पहनने की अँगूठी जैसी आकृति) पहनकर श्राद्ध-कार्य सम्पन्न होता है। कु श का ही आसन बिछाया जाता है।

विवाह में वेदी से आठों दि श् ााओं में दो-दो कु श इस प्रकार बिछाए जाते हैं कि कु श का अग्रभाग और पृष्ठभाग क्रम श: आगेवाले कु श के अग्र व पृष्ठभाग से मिलता रहे फिर प्रत्येक कु शद्वय के बिट में पीले चावलों की ढेरी रख दी जाती है ताकि कु श अपने स्थान पर रहे।-४७ विवाह में कु श लेकर उनमें गाँठ लगाकर कन्या का पिता वर के आमने-सामने परस्पर जुड़े हाथों से पकड़ा देता है। यहाँ कु श यामा गौ तथा बछड़े के प्रतीक माने जाते हैं। 'कन्यादान' के समय कन्या की माँ के हाथ में जल की 'झारी' और कन्या के पिता के हाथ में कु श होती है, लोकगीत गाए जाते हैं-

सोहै सुमन के हाथ गडुंअरा राजिंदर कु श की डार
कंपन लाग्यौ है हाथ कौ गुडुंआ कंपी है कु श की डार

इस समय वर कन्या की दाहिनी कोख को कु श के द्वारा स्प र्श करता है तथा कु श से वधू पर मार्जन करता है।

ब्राह्मण लोग 'श्रावणी-पूर्णिमा' के दिन सूर्यास्त से पूर्व कुा का संचय करते हैं। कु शल शब्द का तात्पर्य उन ब्रह्मचारियों से था, जो कु शा लाते थे-'कु शं लातीति कु शल:', कु श में तीखी धार होती है, इसलिए उसे काटकर लाना सावधानी और चतुरता का काम है। तीक्ष्ण बुद्धि को कु शाग्र-बुद्धि कहा जाता है। कु शा पर 'गरुड़' ने 'अमृतघट' रखा था। पुराणों में 'कु शावर्त' और कु शद्वीप के प्रसंग हैं।

(ऊ) तिल : पितरों के 'कव्य' और देवताओं के 'हव्य' दोनों में ही तिल का महत्त्व है। पितृश्वरों को तिलांजलि दी जाती है।

(ए) समिधा : मदार, पलाा, खैर, चिचिड़ा, पीपल, गूलर, छोंकर ( शमी) दूब और कु श को नवग्रहों की समिधा बताया गया है। आम, ओंघा और कपास की लकड़ी भी समिधा में ग्रहण की जाती है।

(ऐ) अन्नाधिवास : जब किसी देवता की प्रतिमा प्रतिष्ठित की जाती है तो उस प्रतिमा का 'अन्नाधिवास' कराया जाता है और उसे अन्न के बीच रखा जाता है।

(ओ) जौ संबंधी अनुष्ठान : लोकजीवन में जौ का विोष आनुष्ठानिक महत्त्व है।-४८ वह देवतत्त्व भी है और आनुष्ठानिक सामग्री भी। पूजन तथा संस्कार एवं पर्व-त्यौहार-तीनों संदर्भों में उसका महत्त्व है। नवरात्रों में 'कला-स्थापन' किया जाता है, यह कला भगवती जगदंबा का प्रतिरुप है। इसके चारों ओर पवित्र मिट्टी अथवा गंगा-यमुना की 'रेता' लगाकर उसमें जौ बोये जाते हैं। नौ दिन की पूजा के बाद ये 'जौ' उग आते हैं। यदि ये जौ लंबे, घने और बड़े उग आते हैं तो माना जाता है कि घर में धनधान्य सुख-सम्पत्ति की वृद्धि होगी तथा यदि ये जौ न उगें, छितराये उगें और छोटे-छोटे उगें तो इसे अप शकुन माना जाता है।-४९

श्रावण में 'कजली-खेल' में भी जौ बोये जाते हैं। नागपंचमी को बर्तनों में जौ बोये जाते हैं, जो चौदस तक उग आते हैं, उन्हें झूले पर झुलाया जाता है। 'राखीपूनों' के दिन 'सेंमई चावल' से इनकी पूजा होती है,
तदुपरांत 'राखी' बाँधकर इन्हें तालाब-सरोवर में 'सिरा' दिया जाता है (विसर्जित कर देते हैं)। उगे हुए जौ 'घूँघा', 'गूँद' 'भुजरिया' अथवा 'जवारे' कहे जाते हैं तथा इन्हें बहन-बेटियाँ अपने भाई और पिता के कान पर पहनाकर दक्षिणा लेती हैं।

'गणे शचौथ' की कहानी में प्रसंग है कि बुढिया अपने बेटे को जौ देकर कहती है कि 'इन्हें अपने चारों ओर बिखेरकर बो देना।' इसे परिणामस्वरुप बुढिया का बेटा कुम्हार के अंवा में से जीवित निकल आता है। इसी प्रकार 'करवाचौथ' की कहानी में बहू ला श के आसपास मिट्टी बिखेरकर जौ बोती है, 'चौथ मैया' की कृपा से उसका पति जीवित हो जाता है।-५०

'गाज की कहानी' चुटकी में जौ लेकर सुनी जाती है। 'देवायनी' एकाद शी को घूँघा एकाद शी भी कहते हैं और इस दिन मिट्टी के पाँच घोंघे बनाकर उनमें दूब लगाकर उनकी पूजा की जाती है।

जौ उत्पादकता का प्रतीक माना गया है और कन्या का पिता कन्या का विवाह करके गंगा पर जौ बोने जाता है। परिक्रमा करते समय भी मार्ग में जौ बिखेरे जाते हैं। बच्चे का जन्म सुनकर स्वजन जब आते हैं, तो हाथों में जौ लेकर आते हैं तथा उन्हें चौक पर छोड़ते हैं।-५१ यज्ञ-हवन में जौ को लौंग का स्थानापन्न माना जाता है, हवन सामग्री में तिल और जौ होते हैं। जौ का स्थान अन्नों में (अनाजों में) ¸ोष्ठ है-

अन्नन में तौ जौ बड़ौ रे ग्वाइ दयें फल होय।

मृत्यु के उपरांत शव की छाती पर जौ के चून के पिंड रखे जाते हैं। पिंडदान के पिंड जौ के जून से ही बनाए जाते हैं।

विवाह में वरपक्ष का मान्य पुरुष 'मलिरया' (मिट्टी के पात्र) में जौ लेकर कन्या पक्ष के यहाँ जाता है।-५२ घुड़चढ़ी में 'दुल्हा' की बहन जौ बिखेरकर मंगल-कामना करती है। 'टीका' के समय लड़की के माता-पिता विवाह-मंडप के चारों ओर जौ बोते हैं।

जन्म संस्करों में 'ओंड़ा कोंड़ा' नाम का एक अनुष्ठान होता है। इसमें बैमाता की मनौती करते हुए जच्चा जौ के ढेर का स्प र्श कर देती है।

जौ बोना पुण्य कार्य है। ब्रज के एक मृत्यु-गीत में इसे धर्म का हेतु माना गया है।

काए के कारन जौ बए और कहे के हरे-हरे बाँस
हरि के किसन कैसे तिरयऔ
भाला धरम के कारन जौ बए मरन के काजें हरे हरे बाँस
हरि रे किसन कैसे तिरयऔ।

जौ बोने की प्रथा का प्रचलन मिश्र में भी था। फ्रे ने इसका संबंध ओसिरिस की मृत्यु, अंगच्छेदन और उसके पुनरुज्जीवन में जोड़ा है। उसके अनुसार जौ बोना मृत ओसिरिस को दफनाने के समान था, जल आदि देकर जौ का फूटना दूसरी स्थिति थी और जौ का अंकुरित होना पुनरुज्जीवन का द्योतक है।-५३

२.२. संस्कार संदर्भ

मांगलिक कार्यों में आोक के पत्तों का 'वंदनवार' तथा केले के खंभ लगाए जाते हैं। पंचपल्लवों में पीपल, बरगद, पाकर, गूलर और आम के पत्तों की गणना की गयी है, मंगल कला के ऊपर पंचपल्लव रखे जाते हैं।


२.२.१. फरेई : पुंसवन संस्कार (फरेई) में गर्भिणी को गूलरिया की माला पहनाई जाती है।-५४ जन्म संस्कार में छटी के दिन छटी मैया की आकृति बनाकर उसके सामने लाल चंदन और अनार की दातुन रखी जाती है और विश्वास किया जाता है कि छटी की रात को बैमाता नवजात शि शु का भाग्य लिखेगी। प्रसूति गृह के द्वार पर 'स्वास्तिक' और 'फूल-छबरिया' धरे जाते हैं तथा मेहँदी और हल्दी के थापे लगाए जाते हैं। नीम के पत्तों का 'वंदनवार' बाँधा जाता है।

२.२.२. जनेऊ : जनेऊ (उपनयन) में छोंकर के पत्ते, गूलर की दातुन, गूलर फल, मूँज की जेवरी और ढाक का दंड लाया जाता है। जनेऊ के यज्ञस्तंभ के रुप में ढाक की लकड़ी को प्रतिष्ठित किया जाता है तथा उस पर कलावा (मौरी) लपेटा जाता है।-५५

संजूती-थाली में हल्दी की गाँठ और सुपाड़ी पर गणपति का पूजन किया जाता है।

२.२.३. विवाह : कन्या के घर में विवाह के दिन का सबसे पहला अनुष्ठान 'माढयौ' है, इसमें छोंकर अथवा आम की लकड़ी का यज्ञस्तंभ स्थापित किया जाता है। इसी के साथ एक बाँस स्थापित किया जाता है, जिसमें लाल कपड़े में हल्दी की गाँठ, अक्षत और कुपाजडी बँधी होती है। विवाह के समय वर और कन्या के सिर पर खजूर के पत्तों से बनी मौर बँधी होती है, मौर को सेहरा भी कहते हैं।

वैवाहिक अनुष्ठान में जब कन्या की माँ 'भात नौतने' अपने भाई के यहाँ जाती है तो गुड़ की डेली से निमंत्रण देती है तथा अपने 'गोती' बंधु-बाँधवों को चावल से 'नौता' जाता है।

गुर की डरी ते साहिब पीहर नौतौ साठी के चामर अपने गोतिया।

बरातियों को सुपाड़ी देकर नौता (निमंत्रित किया) जाता है तथा पान का बीड़ा देकर सम्मानित किया जाता है। सम्मानित लोगों को फूल देकर निमंत्रित करने तथा पान देकर बुलाने का उल्लेख भी लोक कहानियों में मिलता है। जब वधू पहली बार अपने पति के घर आती है तो 'धागा सूती' की र होती है-जिसमें उसके सिर पर एक लोटा जल और आम के पत्ते रखे जाते हैं।-५६ जौ के आटे के जो 'फर'-५७ बनाए जाते हैं, उन्हें अपने पैरों से दबाती है।

पान, फूल, लौंग और सुपाड़ी अतिथि के सम्मान के प्रतीक हैं।

२.२.४. मृत्यु-संस्कार : आसान्न-मृत्यु व्यक्ति के मुख में तुलसी और गंगाजल डाला जाता है तथा दाब घास के आसन पर लिटा दिया जाता है। मृत्यु हो जाने पर बाँस की नसैनी पर फूस डालकर शव को श् म शान पहुँचाया जाता है तथा चंदन-चिता बनाई जाती है। सामान्य व्यक्ति की चिता में प्रतीकात्मक रुप में चंदन की एक लकड़ी रख दी जाती है, सम्पन्न स्वजन-संबंधी तिनका तोड़-५८ कर मृतक से संबंध-विच्छेद करते हैं तथा परिवार के प्रमुख व्यक्ति के द्वारा प्रस्तुत की गयी नीम की जाल में से एक पत्ती लेकर चबाते हैं।

प्रेतात्मा की शक्ति के निमित्त दस रात तक पीपल के वृक्ष पर बाँधकर जल का घड़ा लटका दिया जाता है। 'कनागतों' में काकबलि का गौर ढाक के पत्तों पर डाली जाती है।-५९

२.३. पर्व-त्यौहार संदर्भ

'होली' की पूजा में गेहूँ की बाल और चना के बूट (हरे पौधे) आव श् यक होते हैं।

'होली' में बालें भूनी जाती हैं तब गीत गाया जाता है-

बालि बलूलरियाँ जौ की लामनियाँ

होली की रात को ही माता ( शीतलामाता) पर बालबूट चढ़ाए जाते हैं।

दीपावली को गणे श और लक्ष्मी की पूजा खील और बता शों से की जाती है। 'कोठी' और 'कुल्हैया' (मिट्टी के पात्र) में भरकर ये ही खील 'भुमियाँ', 'माता', 'देवी' और 'पितृश्वरों' के लिए 'मनसी' जाती हैं, उनके थान पर जाकर समर्पित की जाती हैं।

शिवरात्रि को शिवपूजा में 'बेर' और 'सिंगाड़ी' चढ़ाए जाते हैं तथा 'देवठान एकाद शी' के दिन शकरकंद की खीर बनायी जाती है तथा ईक से देवताओं को जगाने का अनुष्ठान किया जाता है।

ॠषि पंचमी को ऐसे अन्न के ग्रहण करने का विधान है, जो बिना जोते-बोए उपजता है। सवाँ का चावल जैसे मुनिधान्य इस व्रत में ग्रहण किए जाते हैं। मुनिधान्य का यह सूत्र हमें कृषिपूर्व सभ्यता की याद दिलाता है।

कृष्ण-जन्माष्टमी के व्रत में खीरा का माहात्मय है। खीरा में 'ाालिग्राम' बराजमान कर दिए जाते हैं और आधी रात के बाद ाालिग्राम का खीरा से जन्म होता है। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान है।

'फुलौरा दोज' को क्वारी कन्या फूल बाँटन आती है तथा पितृपक्ष में क्वारी कन्या फूल और पान के साथ गोबर में 'साँझी' की रचना करती हैं और फूलों से ही साँझी की पूजा करती हैं।

'अखतीज' के दिन पंखा और सत्तू के साथ खरबूज और ककड़ी का दान किया जाता है तथा संक्राति
(मकर) के दिन खिचड़ी 'मनसी' जाती है। 'तिलभुग्गा' और तिल से बनी अन्य सामग्री दान की जाती है। सकटचौथ भी तिल का त्यौहार है।

अक्षयनवमी को 'आँवलानवमी' भी कहा जाता है तथा इस दिन आँवले की पूजा और आँवले के दान का महत्त्व है।

बसंतपंचमी के दिन आम के बौर, आम के पत्ते और सरसों के फूल घर में लाए जाते हैं तथा उन्हीं से पूजा की जाती है। संवत्सर के दिन प्रात:काल मिसरी की डली के साथ नीम की कोंपल पत्तियाँ चबाई जाती हैं।

२.४. अभिचार संदर्भ (टोटका)-६०

यदि किसी बाग में फल नहीं आवे तो उस बाग का विवाह कराया जाता है। गाँवल नगलागढू के 'डहरवाले पंडितजी' ने स्वीकार किया कि उनके बाग में फल नहीं आता था तो होली की रात को उन्होंने नग्न होकर वृक्षों को खुरपी से गोद दिया, उसके बाद फल आने लगे।

हल चलाते समय बैल के फाला लग जाए तो हींस के नीचे होकर "पैना" को तीन बार निकालकर जिस दि श् ाा में पीपल हो, उस दि श् ाा में देखने से घाव सूख जाता है। न लग जाने पर सुबह-सुबह ताजा पानी का एक लोटा बीमार व्यक्ति के ऊपर सात बार उतारकर, उसमें थोड़ा-सा सिंदूर और एक बूँद घी या तेल डालकर पीपल पर चढ़ा दिया जाता है।

सूखारोग के मरीज को लेकर शुक्रवार या शनिवार के दिन बिना टोके किसी ईख के खेत में होकर निकल जाने से विश्वास किया जाता है कि ईख सूख जाती है तथा बच्चा स्वस्थ हो जाता है। इसी प्रसंग में बबूल पर लौकी भी लटका दी जाती है, लौकी सूख जाती है और बच्चा भी ठीक हो जाता है।

आँख में गुहेरी होने पर बेरिया के ढाई पत्ते लेकर उलटे फेंके जाते हैं तथा सात पत्ते आँख के ऊपर सात बर उतारकर उनको उसी बेरिया के काँटे में लगा देते हैं।

बुखार, फोड़े-फुंसी तथा भूत-प्रेत संबंधी 'ऊपरी व्याधि' के लिए नीम, शिरीष तथा आक की पत्तियों से
'झाड़ा' दिया जाता है। कार्य की सफलता के निमित्त शिरीष की पत्तियाँ 'टोपी' में अथवा गोझा (जेब) में रख ली जाती हैं। नरक चतुर्दाी के दिन बालबच्चों को रोगादि से मुक्त रखने की कामना से शिरीष की पत्तियों का 'आजाझारा' किया जाता है-'आजाझारौ रोग सोक पनारें डारौ।' शीतलामाता की मेहर के समय (चेचक में) नीम की 'लहर्रा' रोगी के तकिए के नीचे रखा जाता है। कहावत है-'इकेलौ नीम घर-घर सीतला।'

'जूड़ी' आने पर रोगी को बबूल के पेड़ से लिपटकर मिलना चाहिए, यह टोटका है। इसी प्रकार शुक्र या शनिवार को रोगी मूँज की रस्सी से किसी प शु की हड्डी को बबूल के पेड़ से बाँद देते हैं। 'तिजारी बुखार' में बिना टोके हुए रोगी कीकर के पास जाकर कहता है-'मेरौ मेहमान तेरे आवै, आइ बैठना मन कौ पावै।'

छोटे बच्चों के अस्वस्थ होने पर उनके कपड़े हींस की झाड़ी पर डाल दिए जाते हैं।

जूड़ी आने पर रोगग्रस्त व्यक्ति आक के नीचे चावल रखकर कहता है-'तेरौ दूध और मेरे चावल तू मेरे यहाँ नौतौ है।'

अनेक पुराकथाएँ हैं जिनमें यह अभिप्राय होता है कि किसी सिद्ध पुरुष के द्वारा दिए गए फल को खाने से गर्भ हुआ और पुत्र की उत्पत्ति हुई। अभी भी नवविवाहतों को 'बड़े-बूढ़े' श्रीफल (नारियल) देते हैं, उसके पीछे पुत्र की कामना निहित होती है। माना जाता है कि गोला का फूल खाने से पुत्र उत्पन्न होता है।

जब नया मकान बनवाया जाता है तो उसकी नींव में अमरबेल रखी जाती है, क्योंकि अमरबेल विस्तार का प्रतीक है। जिस प्रकार अमरबेल जिस वृक्ष पर डाल दी जाती है, वहाँ फैलती चली जाती है, उसी प्रकार यह कुनवा भी फैले, यह भावना और विश्वास इस टोटका के साथ जुड़ा हुआ है।

मंगलकामना के लिए जौ बिखेरे जाते हैं। भैयादोज के दिन बहनें कटेहरी के पत्ते और काँटों के कूटकर विश्वास करती हैं कि उन्होंने भाई के शत्रुओं का विना श कर दिया है।

पिछवारे सूर बिखेर बैरियरा सब झुरि मरें।
आँगन उरद बिखेर भाइअरे सब जुरि मिलें।

अर्थात् घर के पिछवाड़े काँटों को बिखेरो ताकि भाई का शत्रुदल कंटकों में उलझ मरे तथा आँगन में 'उड़द' बिखेरो ताकि भाई एकत्र हो जाएँ।

मारण-व शीकरण जैसे प्रयोगों के लिए मंत्र पढ़कर सरसों, उड़द तथा चावल के दाने (अक्षत) फेंकने और मारने का टोटका है। 'सिड़रिया-गाथा' में उल्लेख आता है कि-'पढि पढि सरसों मारै रे सिड़रिया।' डॉ. महेंद्र भानावत के अनुसार-'मूठ उड़द के दानों की चलती है। ये उड़द शव की खोपड़ी में बोए जाते हैं। पके के बाद वि शेष मंतर से उड़द फेंके जाते हैं। मक्खियों की तरह से सर्र से उड़द हमला करते हैं और जिस पर फेंके जाते हैं, उसके अंग-अंग में समा जाते हैं।'-६१

कन्या का विवाह संबंधी ग्रहदोष मिटाने के लिए उसका पीपल के साथ और पुरुष का आक के साथ विवाह कराया जाता है, फेरे डलवाए जाते हैं। उसके बाद फिर वास्तविक विवाह कराया जाता है।
नींबू और मिर्य (लाल) न उतारने के टोटका-प्रयोग में ग्रहण किए जाते हैं। न से रक्षा करने के कारण इसे पेड़ों का राजा भी माना जाता है।

तंत्र-मंत्र और यंत्र संबंधी प्रयोगों में भोजपत्र का महत्त्व है। तांत्रिक मंत्र भोजपत्र पर रक्तचंदन या गोरोचन से लिखे जाते हैं तथा 'ताबीज' बनाया जाता है।


निषेध-६२

विश्वास किया जाता है कि सूर्यास्त के समय वृक्ष-वनस्पति सोते हैं, इसलिए उस समय वृक्ष से फल-फूल तोड़ने का निषेध है। पनवारी के पान, बारी के बैंगन तथा बाग का कच्चा फल तोड़ना पाप है-'कै तैनें बारी के बैंगन तोरे के पनवारी के पान।' पीपल देववृक्ष है, इसकी डाली तोड़ना पाप है, अनेक कथाओं में बताया गया है कि ऐसा करने से कुष्ठ रोग हो जाता है। पीपल के आस-पास पे शाब करने से 'सकला' (मुँह पर सफेद का निाान) हो जाता है। भूलचूक में ऐसा अपराध हो जाए तब प्राय श् चित्त के लिए शिवजी के मंदिर में जाकर जल चढ़ाना और दीपक जलाना चाहिए तथा 'जलहरी' का जल उस स्थान पर लगाना चाहिए-

पीपर काटे पात बिनासे जीव जंतु नींव पूछे
जा करनी से भयी कोढिया पट्टी बाँधतु फिरिये हरि भज लै।

पीपल को गृहस्थ घर में रखने तथा इसकी लकड़ी जलाने का भी निषेध है। या महुआ की छाया में नहीं जाना चाहिए। बृहस्पतिवार को खिचड़ी और एकाद श् ाी को चावल, मूली और बैंगन खाने का निषेध है। रविवार को चना नहीं खाए जाते। कार्तिक मास में लहसन, सलगम, गाजर, बैंगन और पेठा खाना भी दोष माना जाता है। खलिहान में बैठकर भुना अनाज नहीं खाया जाता। रविवार को तुलसीदल खाने, तुलसी की पत्ती तोड़ने और सींचना भी निषिद्ध है। 'अखतीज' से पहले जमासा नहीं काटा जाता। बाँस को जलाना अपने वंा को जलाने के समान है, कहते हैं-'बाँस जरायौ तैसो बंस जरायौ।'

रविवार को आँवले की पूजा नहीं करते, 'आँवला' शब्द का उच्चारण करना भी दोष है। कमल के पुष्प में लक्ष्मी का निवास है, इसलिए कमल तोड़ने का भी दोष माना जाता है। कमल तोड़ने के कारण ब्रह्माण दरिद्र हुआ, ऐसा विश्वास किया जाता है। कोई भी हरा वृक्ष काटना पाप है। बैठे-बैठे तिनका तोड़ते रहने को बड़े-बूढ़े दोष बतलाते हैं।

विधान

वृक्षारोपण करना पुण्य कार्य माना जाता है। इसी प्रकार तुलसी, शालिग्राम का विवाह भी एक धार्मिक अनुष्ठान है। धम शास्रों में वृक्षारोपण की महिमा यज्ञ करने के समान बतलायी गयी है। -६३

गाँवों में सत्यापन के लिए पीपल की डाल पकड़कर 'सौगंध खाने', हरे पेड़ के नीचे बैठकर शपथ लेने तथा हाथ में अन्न लेकर कहने का रिवाज है।

इस प्रकार 'लोक अनुष्ठानों में बीज-वृक्ष' के अध्ययन से लोकमानस की विश्वास प्रणाली में बसे हुए बीज-वृक्षों के प्रति देवभाव के सूत्र तो परिलक्षित होते ही हैं, इसी के साथ परम्परा की शक्ति भी स्पष्ट होती है। वृक्ष देवतत्त्व इतिहास की अँधेरी गहराइयों से जुड़ी हुई संस्कृति का सूत्र है और यह परंपरा की ही शक्ति है, जिसके प्रवाह में बहकर वह आज के लोकजीवन में भी वर्तमान है।